1 |
उसके रुकने के कारण हर बार जुदा थे। एक बार उसके एक अगले टायर में पंचर हुआ तो दूसरी बार पिछले टायर में। एक बार वायर टूटा तो एक बार तेल खत्म हुआ। एक बार तो देसी शराब के ठेके के पास बस ऐसी खराब हुई कि ड्राइवर की समझ में खुद ही कुछ नहीं आया। हारकर उसने कंडक्टर से सलाह की, फिर वे दोनों नीचे उतर गए।. |
2 |
पंद्रह-पंद्रह आदमियों की पाँत बना के चलो।" लाला ने यह सुनकर अपने झाऊ-झप्पा मूँछें फिर तरेरीं और रिकार्ड बजा दिया, "देख लेना नाश्ते में कोई कमी न रह जाए वरना...।" लाला की बात बीच में ही काटकर मुखिया बोला, "ना-ना लाला जी कमी कतई न रहने की है। हमें पता है, वरना आप बारात वापस ले जाओगे।. |
3 |
हर साल नये साल का यह दिन उन्हें ऐसी ही टीसें देता है। एक हफ़्ते पहले से उन्हें अपनी साँसें घुटती सी जान पड़ती हैं। आज दिसंबर का आख़िरी दिन है, बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही है, शायद पहाड़ों पर बर्फ़ गिरी होगी इसलिये ठंडी हवाएँ चल रही हैं। ये हवाएँ प्रसादी देवी को बहुत उदास कर जाती हैं।. |
4 |
सदमे से मैं पागल हो गयी थी। जब घर में सहन करना मुश्किल हो गया तो घरवालों ने मानसिक अस्पताल में भर्ती करवा दिया। ठीक होने में कई वर्ष लग गये ऐसा बताया गया मुझे। जब अपने काम अपने आप करने लगी व दौरे पड़ने बंद हो गये तो अस्पताल वालों ने घर पर खबर की पर काफ़ी इंतज़ार के बाद भी वहाँ से कोई नहीं आया।. |
5 |
तब मेरी शारीरिक अवस्था भी सही नहीं थी। धुँधली सी याद है कि अस्पताल के लोग हमारे घर भी गये थे तो वहाँ जाकर पता चला कि परिवार घर बेच कर दूसरे शहर में चला गया है। आसपास वालों को भी पता नहीं चला - बस बेटी, तब से अस्पताल वालों की केयर टीम ने मुझे यहाँ भेज दिया। अब यही मेरा घर है।. |
6 |
बेटी तो विदेश चली गयी थी शादी के बाद, सुना था अस्पताल में वो बराबर पैसे भेजती रही। अब कौन कहाँ है मालूम नहीं मुझे, बहुत याद करती हूँ तो नाम ही याद नहीं आते, घर कहाँ था याद नहीं आता, हाँ कुछ कुछ बातें याद हैं, पुरानी चीज़ें याद करने में दिक्कत आती है, सिर भारी हो जाता है।. |
7 |
पति का चेहरा ज़रूर याद है बेटे-बेटी की शक्लें तक भी अब तो कभी कभी धुँधलाने लगती हैं। वैसे भी सारी ज़िंदगी निकल गयी आख़िरी पड़ाव है... अब तो क़ब्र में पैर लटक रहे हैं बेटी। पुरानी बातें सपना सी लगती हैं। हाँ आज की तारीख़ कभी नहीं भूलती। बस बेटी बस, अब कुछ मत पूछना, चक्कर आने लगे हैं मुझे।. |
8 |
फिर दोनों पैरों में लकवा मार गया और उन्होंने पलंग पकड़ लिया। मेरी माँ ने हम सभी का दायित्व सँभाला, हमें बड़ा किया, बचपन से अम्मा जी मैं देखती रही हूँ, मेरे माता पिता की आँखों में गहरा दर्द है, आपको ढूँढ़ने का। आप शायद नहीं मानेंगी आज तक अस्पताल की बेरुख़ी व लापरवाही का मुआवज़ा भुगत रहे हैं हम लोग।. |
9 |
अम्मा जी, जिस अस्पताल में आप भर्ती थीं ना उसके हम बराबर टच में रहे पर एक दिन मालूम पड़ा कि रातों रात किसी और डाक्टर ने वह अस्पताल ख़रीद लिया है और वहाँ नये डाक्टर व नया स्टाफ़ आ गया है, जाने कब वहाँ के रिकार्ड बदल गये। पुराने रिकार्ड नष्ट कर दिये गये, क्यों और कब कोई नहीं जानता।. |
10 |
पंद्रह दिनों के अंदर सारा सिनारियो बदल गया। आपको इस बीच कहाँ शिफ़्ट किया यह तक पता नहीं चल पाया, जहाँ बताया वहाँ की संस्था के कई चक्कर काटे, उन्होनें सारे रिकार्ड आगे कर दिये, आपका नाम नहीं था जबकि अस्पताल के रिकार्ड में लिखा था। इसमें क्या रहस्य या राजनीति रही, पता नहीं चल पा रहा था।. |
11 |
एक दिन अचानक पापा के एक बचपन के दोस्त जब टी.वी. देख रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक वृद्धा आश्रम में कोई कार्यक्रम चल रहा, वहीं उन्होंने एक झलक आपकी देखी पर उन्हें याद नहीं आया कि किस चैनल पर कार्यक्रम चल रहा था, फिर भी कई चैनलों के दफ़्तरों में बात की पर पुख़्ता जानकारी नहीं मिल सकी।. |
12 |
सोच कर उन्हें अपने दिये संस्कारों पर गर्व हो रहा था। पर फिर भी प्रसादी देवी के मन का एक कोना खाली-खाली व उदास लग रहा था -कैसे भूल सकेंगी वो कि माधुरी बहन के इस ब्रह्म आश्रम में उन्हें एक नया जीवन मिला था, कुछ आत्मीय दोस्त मिले थे और सबसे बड़ी बात अपनापन मिला था। जीवन भी क्या क्या रंग दिखाता है।. |
13 |
वह तो अब सफ़ेद बालों वाली लँगड़ा कर चलने वाली एक बुढ़िया है। क्या वे बबुआ को पहचान लेंगी। वह जवान दया अब कैसा लगता होगा - नि शब्द रह कर वे बस अपने आप से बराबर बोल रही थीं। एक फ़िल्म की तरह प्रसादी देवी की आँखों के सामने से पूरा जीवन गुज़र गया था - क्या भूलूँ क्या याद करूँ सी ऊहापोह की स्थिति भी थी।. |
14 |
प्रसादी देवी ने वृद्धाश्रम परिसर के मंदिर में जाकर दिया जलाया। चारों तरफ़ नज़रें घुमा कर पूरे आश्रम को भीगी आँखों से देखा और तभी मन ही मन एक निर्णय ले लिया। बाहर कार तैयार खड़ी थी। रमोला ने प्रसादी देवी को सूचना दी कि घर में सारे दूर दराज़ के रिश्तेदार आपकी बाट जोह रहे हैं।. |
15 |
स्नेह की कलकल नदी वहाँ बह रही थी। जिसे देख पोती ने भी भरी आँखों से मौन सहमति दी। उसने अपनी दादी को ढूँढ कर यह साबित कर दिया था कि परिवार आत्मा का बंधन होता है उसकी लौ में ही हम संस्कारित व परिष्कृत होते हैं। प्रसादी देवी को सभी ने मिल कर टैक्सी में बिठाया। टैक्सी चल पड़ी।. |
16 |
इस घर में किसी की मृत्यु हुई है जिसकी सूचना डाकिये से मिली है। जब डाकिया लैटर बॉक्स में चिट्ठी डाल रहा था तो उसे अंदर से एक अजीब प्रकार की महक आई। उसने दरवाजे पर दस्तक दी तो अंदर कोई हलचल न हुई। डाकिये को किसी अनहोनी की शंका होने लगी। उसने जेब से मोबाइल निकाल कर ९९९ पुलिस का नम्बर घुमा दिया।. |
17 |
कहाँ गया वह सब कुछ। एक छोटी सी भूल से जैसे जिंदगी ही रुक गई हो। आखि़र कब तक वह अपनी गल्तियों की सलीब को ढोता रहेगा। कहने को वह चार बच्चों का बाप है। एक भरा पूरा परिवार है उसका। कहाँ है वो परिवार जिसको उसके बेबुनियाद शक और झूठे घमंड ने ठोकर मार दी। बच्चे उसके होकर भी उसके नहीं।. |
18 |
घनश्याम ने तो सोचा भी नहीं था कि उसकी बंदर भभकियों का जवाब कभी ऐसा भी मिल सकता है। सिगरेट के कश खींचते हुए हाथ में चिट्ठी लेकर घनश्याम रॉकिंग चैयर पर बैठ गया। अब यह कुर्सी ही तो उसकी एक मात्र साथी है जो उसे आराम के साथ पुरानी यादों में ले जाकर उसकी गलतियों का एहसास भी दिलाती रहती है।. |
19 |
बापू ने सुना है दूसरी शादी कर ली है। उस घर से मेरा नाता अब रह ही क्या गया है भला। फिर भी सिर्फ अम्मा ही नहीं अपनी मिट्टी, अपने लोग, अपना स्कूल, वह गली मोहल्ला सब याद आते रहते हैं। मैं और चिपक कर बुआ के सीने से अपना सिर सटा लेती। वे वैसे ही लेटे-लेटे मेरा सिर, मेरा माथा सहलाती रहतीं।. |
20 |
सब कुछ तो मन की आँखों के सामने धुंधला चुका होता है। अम्मा बापू के साथ आती थी हर साल, शिवरात्रि पर, गंगा स्नान पर और। अचानक दिल में जैसे हाहाकार होने लगता है। लगता है जैसे किसी ने बोझ वाली सिल्लियाँ रख दी हों छाती पर। उँगलियों पर हिसाब लगाती हूँ, पूरे पचपन साल बाद आ रही हूँ यहाँ।. |
21 |
फिर शादी के लिए वह घर चली गई थी। मैं पस्त सा हो गया था। जब सारे साथी दफ्तर की ओर से उसे उपहार भेज रहे थे, मेरा मन एक बारगी चाहा था कि सब से कहूँ - कि अपना उपहार मैं अलग से भेजूँगा... पर फिर मैंने अपने आप को जग-हँसाई के डर से सम्भाल लिया था और सब के साथ ही किया जो किया या किया जाना था।. |
22 |
तीस-इकत्तीस दिन काम करने पर भी साठ और अट्ठाईस दिन करने पर भी। साल के अधिकांश महीनों में इकत्तीस दिन होने की बात बुरी लगती है, किंतु आज मैं गुस्से और दुःख से अलग हटकर कोई बात सोचना चाहता हूँ। मन ही मन अनुमान लगाता हूँ कि ओवरटाइम के लगभग तीस रुपए और हो जाएँगे। साठ और तीस-नब्बे।. |
23 |
कार्ड पर लिखे बदसूरत अक्षर कीलों की तरह आँखों में चुभने लगते हैं। चुपचाप कार्ड जेब में रख लेता हूँ। मन में कोई कहता है कि रोना चाहिए, लेकिन रोने जैसा कुछ महसूस नहीं होता। सामने बैठे मेरे टाइम-कार्ड पर ओवरटाइम लिखते हुए बनर्जी बाबू पर मुझे गुस्सा आने लगता है कितनी देर से ये इस कार्ड को रखे बैठे हैं।. |
24 |
वैसे ही दो बड़े-बड़े कमरेनुमा तहखाने, तहखाने या बड़े हाल, रोशनी के पूरे इंतजाम के साथ। जमीन के अंदर, जिन्हें देखकर हम सब बहनजी के यहाँ से लौटते ही सबसे पहले उन्हीं की चर्चा करते - पैसा, खजाना रखने के लिए बनाए गए थे। दो प्रवेशद्वार अलग-अलग। दो पूजागृह, चार कमरे इधर, चार उधर।. |
25 |
एक खास पोखर की चिकनी मिट्टी से बनवाई गई, सिर्फ ईंटों का बना और सीमेंट चूने में चिना। इतनी मजबूती से रखी नींव का ही नतीजा था कि बिना सीमेंट के पलस्तर के भी उस पूरी इमारत पर कोई आँच तक नहीं आई थी। यहाँ तक कि तीस बरस से देखते-देखते वह कोठी शाहजहाँ के लाल किले-सी आभा देने लगी थी।. |
26 |
मेरी स्मृतियों में वे जब से हैं, उनमें या तो उनका भोजन है या भजन। उनके आने से पहले ही कयास लगने शुरू हो जाते। तैयारी भी। यदि बहनजी वहाँ होतीं तो वे चुपचाप इंतजाम में जुट जातीं। 'आजकल वे सिर्फ एक वक्त ही खाते हैं, कुछ फल और मिठाई। मिठाई भी शुद्ध खोये की, देखकर लाना, आटे के हाथ न लगें।. |
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दूसरा केले लेने। सस्ते जो थे। माँ दूध-घी के इंतजाम में लग जाती। बच्चों के दूध में पानी मिला दिया जाता। कभी-कभी सारे दूध में भी। यह देशी प्रबंधन था, लेकिन तभी जब बहनजी आस-पास नहीं होतीं। ओवर आल इंतजाम बहनजी देखतीं - बहुत गरिमापूर्ण मगर आखेटक ढंग से, न पीहर वालों को बुरा लगे, न उनके सम्मान में कमी।. |
28 |
छोटे-से स्टूल पर प्लेट-भर पेड़ा या कलाकंद रखा होता और जीजाजी मलाई को जीभ से निगल-निगल कर खा रहे होते। सास से पंखा झलवाते हुए। बहनजी पीछे के कमरे से कभी-कभी देखती-झाँकती। हम छोटे बच्चे थे। बचपन से ही हमें यह शिक्षा दी गई थी कि सब अच्छी-अच्छी चीजें मेहमानों के लिए ही होती हैं।. |
29 |
दरअसल उनके रहने के दिनों का आकलन करके मिठाई जो मँगाई जाती उसको उतने ही भागों में बाँटकर ऐसे छिपाकर रख दिया जाता था कि बिल्ली-चूहे तो छोड़ो, शैतान-से-शैतान बच्चा नहीं खोज पाता। कभी पुराने कपड़ों के बीच, तो कभी आटे के कनस्तर में। ताले में बंद नहीं क्योंकि उसका पता होना सबसे आसान था।. |
30 |
उनके जाने के बाद ही कभी कुछ चूरा-सा बच्चों को मिलता। बच्चे आनंदित भी होते और लड़ते भी कि उन्हें कम मिली है। पूड़ी बनती तो थोड़ा-थोड़ा कर जमा किया हुआ मलसिया का सारा घी खत्म हो जाता। और तब दिल्ली से आए पिता दुर्वासा हो उठते कि 'मुझे महीने में एक मलसिया घी भी नहीं मिल सकता।. |
31 |
डिब्बा असली अनिक घी का - होता था उसमें डालडा। न खाने वालों को पता चलता, न उन्हें जो हरी पर्वत से लेकर हिमालय तक की शुद्ध देशी घी की चीजें सूँघकर ही बता देते थे। आजाद भारत का असली घी नकली लगता है। नकली, असली। सिर्फ वे ही देशी घी नहीं खाते थे। हमारे लिए उनके रिश्तेदार, मित्र सभी देशी घी खाते थे।. |
32 |
तैनात। जीभ निकाल-निकालकर वे और उनके दोस्त होठों से मलाई चाटते। सुड़-सुड़ पीते दूध। बच्चे देखते रहते। उनका देखना अनिवार्य था, क्योंकि उन्हें वहाँ पंखा झलने के लिए, गिलास हटाने के लिए, मिठाई और लाने के लिए या कोई और टहोका उठाने की तैनाती मिलती थी। न खेलने जाने की इजाजत थी, न कहीं और जाने की।. |
33 |
चुपचाप अंदर ही अंदर रिसता फोड़ा, जो जब फटा तो सीधे स्वर्ग ले गया। दो महीने से कम में ही। उन्होंने बताया भी तभी जब पूरी तैयारी कर ली थी। सोचा हो, जब उम्र-भर इस दर्द को पीती ही रही हूँ तो अब भी क्या बताना! हम सभी ने पिक्चर हॉल पर अपनी पहली फिल्में इन्हीं की बदौलत देखी थी।. |
34 |
अगली बार तक रामगोपाल, रावण गोपाल हो जाते थे। 'साला हरामी निकला! उसकी बातें छोड़ो, ये सेवा सिंह हैं, ठाकुर सेवा सिंह, असली राजपूत हैं। असली राजपूत आगरा में ही हैं। शाहजहाँ से इन्होंने ही टक्कर ली थी। ये न होते तो आज आगरा में एक भी हिंदू नजर नहीं आता। सब मियाँ ही मियाँ होते।. |
35 |
बड़ी मुश्किल से आए हैं। इन्होंने जब आप सबकी तारीफ सुनी तो बोले कि एक बार तो मैं भी जाऊँगा, भाभीजी, आपकी जन्मभूमि देखने। यानी कि इक्यावन इन्हें तो इक्यावन ही उन्हें। किसी ने उन्हें कभी झूठ-मूठ को भी मना करते नहीं देखा। माँ पैसे देकर जब उनके पैर छूतीं तो दोस्त समेत वे खंभे-से खड़े रहते।. |
36 |
'भई, हम दोस्ती को घर से दूर रखते हैं। हमें पसंद नहीं। दूर से राम-राम, श्याम-श्याम, आगरे के लोगों को आप मत सीधा समझिए! बड़े हरामी हैं। यही सेवा सिंह, ठाकुर राम सिंह के घर आता-जाता था। उसकी लड़की को भगाकर ले गया। ठाकुर साहब की आँखें खुली की खुली रह गईं। तब से हमें किसी साले पर यकीन नहीं।. |
37 |
'खा ले साले! बहन के हाथ भइया, सास के हाथ जमइया। हम लक्ष्मी को घर से बाहर नहीं निकलने देते। दस तरह के लोग, दस तरह की बातें। 'आपकी बहनजी घर से बाहर नहीं निकल सकतीं। अरे, हम मर्द किसलिए हैं। हमें बताओ आपको क्या चाहिए। हम हैं, नहीं हैं तो, नौकर हैं। ये निकलेंगी तो हमारे साथ ही।. |
38 |
वकील जो है! और तो और, उसने तो वृंदावन वाले ताऊजी, ताईजी की भी पुलिस में रिपोर्ट कर दी थी। दो दिन हवालात में रहना पड़ा। फिर ये भागे-दौड़े तब कहीं इज्जत बची। तब से इन्हें ये दोनों बहुत मानते हैं। ताऊजी भी कहते हैं, जो कुन्नू कहेंगे, वही होगा, शादी हो, जमीन का बँटवारा, जो ये कहेंगे, वही होगा।. |
39 |
पूरे नब्बे हजार दबा गया। कोई मामूली रकम है! १९७० के नब्बे हजार का मतलब आज पाँच लाख है। और उतने ही हमने मुकदमे में फूँक दिए... लेकिन हमारा भी समय आएगा। हमारे ताऊजी कहते हैं, उसके यहाँ न्याय है, भले ही देर से सही। हम तुम्हें एक और बहुत बड़े योगीजी, संत पुरुष से मिलवाएँगे।. |
40 |
देखोगे तो देखते ही रह जाओगे। एवन संत हैं। सिद्धि हासिल है उन्हें। उनकी खोपड़ी से रोशनी निकलती है। वो हमें मिला था गंगोत्री में। ऐसी सर्दी में नंगे बदन। देखा था लक्ष्मी! हम इतने कपड़ों में भी तिनके-से काँप रहे थे। वो ऐसे बैठा था मानो कुछ हुआ ही न हो। ऐसा-वैसा संत नहीं था जिनका तुम मजाक उड़ाते हो।. |
41 |
लक्ष्मी को देखते ही कहने लगा, 'देवी! इस साल के अंत तक तेरी गोद भर जाएगी और होगा भी लड़का।' यह उसी की मर्जी है कि आजकल इन्हें बच्चे इतने प्यारे लगते हैं। पूछो, इनसे पूछो तो! ये गोद लेने को कह रही थीं। मैंने कहा, नहीं, उस संत पुरुष को हमने तो नहीं बताया था। लड़का होगा तो अपना ही।. |
42 |
यानी कि हर उत्तर पर प्रश्न करना। उसे समझना, फिर आगे बढ़ना। सेब तो करोड़ों साल से गिर रहा था। प्रश्न किया सिर्फ न्यूटन ने - गुरुत्वाकर्षण की खोज! ऐसे ही बने जहाज, तोप, परमाणु बम, दवाइयाँ। ऐसा नहीं कि हमने कुछ नहीं किया। हम उनसे आगे थे - १००० वीं सदी तक। सारा यूरोप असभ्य, बर्बर था, तब तक।. |
43 |
चुंबक की खोज, दिशाओं की, मसालों की, नाव, जहाज। कोलंबस कहीं गया, वास्कोडिगामा इधर आया। मैगेलन कहीं और। और यह खोज समाप्त नहीं हुई। डार्विन ने पूरी दुनिया का चक्कर लगाया, तरह-तरह के कीट, पतंगे, पेड़ों का अध्ययन किया। बताया कि ईश्वर ने नहीं, सृष्टि का विकास इस धीमी प्रक्रिया से हुआ है।. |
44 |
और भले ही इस सदी में सब आजाद हो गए उन्हीं की पद्धति की बदौलत, वे आज हमारे मन-मस्तिष्क पर राज कर रहे हैं और हम हैं कि जबसे सोमनाथ पर आक्रमण हुआ - हजार वर्ष पहले, तब भी भजन पर बैठे थे, आज भी इस भरोसे बैठे हैं कि कोई भगवान आएगा, आपको पानी, बिजली, रोटी, कपड़ा, मकान, उद्योग देने।. |
45 |
उनकी देखा-देखी हमें भी लगता तो है, सोचते भी कभी-कभी होंगे, लेकिन सिर्फ सोचने से थोड़े ही काम चलेगा। करना पड़ेगा, रास्ते में आड़े आते हैं आपका धर्म, जाति, शास्त्र, नियम, गैर-बराबरी, ज्योतिष पुनर्जन्म की बातें। पहले इनको भस्म करो, तब आगे बढ़ पाओगे। कोई अपने जनेऊ को धोए जा रहा है, कोई लोटे को।. |
46 |
संत नाम के दिव्य पुरुष किसी कंदरा में बैठे-बैठे फूल रहे हैं। पाप नहीं महापाप है इनका समस्याओं से बचकर भागना और लोगों को भी उनसे भगाने के लिए भजन, भगवान की शरण में धकेलना। गाँधी एक शख्स हुआ है जिसने अपनी निजी वैज्ञानिक पद्धति विकसित की - देश को समझने की, उसे बेहहतर बनाने की।. |
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उसने हमें दो हाथ दिए हैं, स्वस्थ पैर दिए हैं, आँखें, नाक, कान... और फिर भी मैं उसे बार-बार बुलाता फिरूँ! नहीं, बिलकुल नहीं। मुझे लगता है, वह इस बात से और प्रसन्न होता होगा कि यह आदमी मुझे बिलकुल तंग नहीं करता। उसे उन लोगों की मदद के लिए तो समय चाहिए, जिनके शरीर ठीक नहीं हैं।. |
48 |
और वह भी बीस-बीस साल तक। एक पूरी उम्र ही निकाल दी। याद है, बीस वर्ष पहले आपने कहा था, हमारा समय आएगा। अब भी आपके मुँह से ऐसे ही वाक्य निकलते हैं -हमारा समय आएगा। मनुष्य का जीवन इतना सस्ता नहीं है जिसे किसी के भी इशारे पर बरबाद होने दिया जाए। मनुष्य कोशिश तो करता ही है। फल न मिले, न सही।. |
49 |
जो बातें हमें भी नहीं बताती, इसे बताती हैं। इतना प्यार तो अपनी बेटी को नहीं किया होगा। सारा जेवर उनका, अपना भी इन्हें दिया हुआ है। आँखों पर रखती हैं, आँखों पर! छोटी बहू इस बात से जलती भी है कि बड़ी को मम्मी इतना प्यार करती हैं। मम्मीजी ने साफ कह दिया, बड़ी बड़ी ही है, और फिर भी ऐसा किया।. |
50 |
मामा का गुस्सा बेकाबू था - उन्हें अपने भानजों की चिंता ज्यादा थी - विशेषकर इस बनियानी पर जिसने पिछले दरवाजे से उनकी बहन की हैसियत ले ली थी। ब्राह्मण के घर में यह कुकर्म! लेकिन गगनबिहारी ने हिम्मत दिखाई और जाति बिरादरी के बायकाट के बावजूद मुन्नी देवी को वह दर्जा दिया जो सावित्री का था।. |
51 |
मुन्नी देवी ने भी दोनों बच्चों को अपनी बेटी से बढ़कर पाला। किया तो दोनों ने ही बी.ए. था। पर बड़े को बड़प्पन के नाते एम.ए. का नामकरण मम्मी ने ही किया था। रासबिहारी एम.ए., नंदबिहारी बी.ए.। पर बी.ए. जितना जबान पर चढ़ा, एम.ए. नहीं। कुन्नू ने इसे नियति मानकर स्वीकार भी कर लिया था।. |
52 |
मेरी स्मृति में अभी भी एक चाय की दुकान है, जिस पर मुन्नी देवी खड़ी चाय बना रही थीं, साठ वर्ष की उम्र में। उत्थान-पतन की अनूठी दास्तान का चित्र। हम स्कूटर से गुजर रहे थे। मेरे कई रोज के आग्रह के बाद उन्होंने हामी भर दी - 'अच्छा उधर से गुजरे तो बता दूँगा मुन्नी देवी की दुकान।. |
53 |
जिस उमा के नन्हें पैरों को वे अपनी पत्नी से पुजवाना चाहते थे, जिसके पति को उन्होंने अपना बहनोई बनाया था, उसकी इस स्थति को पाँच साल के अंदर ही यह शख्स ऐसे भुलाने की कोशिश कर रहा है। नौ बजते ही वे अपने आसन को लेकर छत की तरफ खिसक गए। मुन्नी देवी ने आखिर तंग आकर आगरा छोड़ दिया।. |
54 |
छत्तीसगढ़ के इस इलाके में, मौसम-बेमौसम आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्होंने मेरी खिड़की के बंद पल्लों को ढीला कर डाला है। खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाड़ियों के भीतर जो छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं।. |
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वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पी कर के, सुस्त हो कर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह 'कैरियर' पर, जिस्म की लपेट में, छिपा हुआ था और पूँछ चमकदार 'हैंडिल' से लिपटी हुई थी। 'कैरियर' से ले कर 'हैंडिल' तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों से कस लिया था।. |
56 |
उसे मरा हुआ जान, हम उसका अग्नि-संस्कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डाल कर खड़े हुए हम लोग हैरत में आ कर, एक कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप की ही चर्चा होती रही।. |
57 |
मेरी दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं मुग्ध हूँ कि बाहर के लहराते तालाब ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्छवि मेरी दीवार पर आँक दी है।. |
58 |
लेकिन उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में, जो दूसरी डालें ऊँची हो कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, मानो वे चील की शिकायत कर रहे हों और उचक-उचक कर, फुदक-फुदक कर, मछली की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों।. |
59 |
उन अँधेरे गलियारों में से मैं कई-कई बार गुजरा हुँ और वहाँ किसी मोड़ पर किसी कोने में इकट्ठा हुए, ऐसी ही संस्थाओं के संचालकों के उतरे हुए चेहरों को देखा है। बावजूद श्रेष्ठ पोशाक और 'अपटूडेट' भेस के सँवलाया हुआ गर्व, बेबस गंभीरता, अधीर उदासी और थकान उनके व्यक्तित्व पर राख-सी मलती है।. |
60 |
किसी खास जाँच के एन मौके पर किसी दूसरे शहर की...संस्था से उधार ले कर, सूक्ष्मदर्शी यंत्र हाजिर! सब चीजें मौजूद हैं। आइए, देख जाइए। जी हाँ, ये तो हैं सामने। लेकिन जाँच खत्म होने पर सब गायब, सब अंतर्ध्यान! कैसा जादू है। खर्चे का आँकडा खूब फुला कर रखिए। सरकार के पास कागजात भेज दीजिए।. |
61 |
इतने में मैं दो कदम एक ओर हट जाता हूँ; और पाता हूँ कि मोटर के उस काले चमकदार आईने में मेरे गाल, ठुड्डी, नाम, कान सब चौड़े हो गए हैं, एकदम चौड़े। लंबाई लगभग नदारद। मैं देखता ही रहता हूँ, देखता ही रहता हूँ कि इतने में दिल के किसी कोने में कई अँधियारी गटर एकदम फूट निकलती है।. |
62 |
लेकिन मैदानों के इस चिलचिलाते अपार विस्तार में एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्यामला के साथ रहने की यह जो मेरी स्थिति है, उसका अचानक मुझे गहरा बोध हुआ। लगा कि श्यामला मेरी है, और वह भी इसी भाँति चिलमिलाते गरम तत्वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है। गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलमिलाता हुआ उसमें अपनापन है।. |
63 |
और उस तकलीफ को टालने के लिए हम झूठ भी तो बोल देते हैं, सरासर झूठ, सफेद झूठ! लेकिन झूठ से सचाई और गहरी हो जाती है, अधिक महत्वपूर्ण और अधिक प्राणवान, मानो वह हमारे लिए और सारी मनुष्यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो जाते हैं। और, यह सतह अपने सारे निजीपन में बिलकुल बेनिजी है।. |
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उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई। अब वह, ऊँचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे। आकाश-यात्रा के दौरान उसे जल्दी-जल्दी पहाड़ी चट्टानों गुंबदों और बुर्जो पर हाँफते हुए बैठ जाना पड़ता। उसके परिवार वाले तथा मित्र ऊँचाइयों पर तैरते हुए आगे बढ़ जाते।. |
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वह मूर्खों का काम है। उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पेड़ तक पहुँच पाता। धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई। और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से, पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर, चल कर, फुदक कर पहुँचता।. |
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और अब मुझे सज्जायुक्त भद्रता के मनोहर वातावरण वाला अपना कमरा याद आता है... अपना अकेला धुँधला-धुँधला कमरा। उसके एकांत में प्रत्यावर्तित और पुन प्रत्यावर्तित प्रकाश कोमल वातावरण में मूल-रश्मियाँ और उनके उद्गम स्त्रोतों पर सोचते रहना, खयालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है।. |
67 |
आभा, मीना को पिछले कुछ साल से जानती थी। एक किटी पार्टी में वह उसे पहली बार मिली थी। धीरे धीरे दोनों में अच्छी दोस्ती हो गयी थी। जब भी किटी पार्टी में वो दोनों मिलतीं, एक साथ बैठकर खूब मस्ती करतीं। पर कभी किसी ने एक दूसरे की व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में ज्यादा कुछ पूछने या जानने की कोशिश नहीं की।. |
68 |
उसे बहुत बेचैनी हो रही थी। जैसे ही किटी पार्टी खत्म हुई और सब महिलाएँ अपने अपने घर चली गईं, आभा ने तुरंत मीना का दिया हुआ कार्ड पर्स में से निकाला और मीना को फोन लगाया। उसने मीना से फोन पर कुछ नहीं कहा, बस अपनी मिलने की जिज्ञासा व्यक्त की। उसे मीना की बहुत चिंता हो रही थी।. |
69 |
मेरी और प्रदीप की शादी हम दोनों के माँ बाप द्वारा तय की गयी थी। इसलिए हम दोनों का प्यार शादी के बाद ही प्रफुल्लित हुआ। लेकिन कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि हमारा तलाक हो जायगा। मैं इस तलाक के लिए पूरी तरह से प्रदीप को दोषी नहीं ठहरा सकती हूँ। शायद यही हमारे भाग्य में था।. |
70 |
उनकी देख रेख में, मैं अपना समय बिताने लगी। माँ बहुत खुश थीं। रोज कहतीं,- बेटा, अच्छा हुआ तुम आ गईं। मुझे ढेरों आशीष देतीं। लेकिन मुझे अंदर ही अंदर बहुत बेचैनी हो रही थी। मैंने सोचा था कि मेरे जाने के बाद प्रदीप को मेरी कमी अखरेगी, प्रदीप फोन करेंगे, मुझे वापस आने के लिए कहेंगे और मैं चली जाऊँगी।. |
71 |
तीन महीने बाद प्रदीप ने मेरी माँ के घर तलाक के कागजात भेज दिये। मैंने ऐसा सपने मैं भी नहीं सोचा था। मैं अपना आपा खो बैठी और माँ को बता दिया। माँ इस सदमे को सह नहीं पायीं और उनका हार्ट फेल हो गया। इसके बाद मुझे प्रदीप से नफरत सी हो गयी। मैंने तलाक के कागजात पर हस्ताक्षर कर भेज दिये।. |
72 |
छब्बे पा' जी के पास अद्भुत कहानियों का खजाना था। हालाँकि वे हम बच्चों के पिता की उम्र के थे लेकिन गली में सभी उन्हें पा' जी (भैया) ही कहते थे। प्याज की परतों की तरह उनकी हर कहानी के भीतर कई कहानियाँ छिपी होतीं। अविश्वसनीय कथाएँ। उनसे कहानियाँ सुनते-सुनते हम बच्चे किसी और ही ग्रह-नक्षत्र पर चले जाते।. |
73 |
परियाँ, जिन्न, भूत-प्रेत, देवी-देवता, राक्षस-चुड़ैल उनके कहने पर ये सब हमारी आँखों के सामने प्रकट होते या गायब हो जाते। छब्बे पा' जी की एक आवाज पर असम्भव सम्भव हो जाता, मौसम करवट बदल लेता, दिशाएँ झूम उठतीं, प्रकृति मेहरबान हो जाती, बुराई घुटने टेक देती, शंकाएँ भाप बनकर उड़ जातीं।. |
74 |
हीर-राँझा, मिर्जा साहिबाँ, सस्सी पुन्नू, सोहनी महिवाल, पूरन भगत, राजा रसालू, दुल्ला भट्टी, जीऊणा मौड़ और कैमा मलकी के किस्से उन्हें ऐसे कंठस्थ थे जैसे बच्चे को दो का पहाड़ा रटा होता है लेकिन इनसे भी ज्यादा रोचक वे कहानियाँ होतीं जिनके स्रोत हम बड़े होने के बाद भी नहीं जान पाए।. |
75 |
कभी-कभी छब्बे पा' जी कुछ दिनों के लिए अपने गाँव चले जाते। उनका गाँव अमृतसर शहर से पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर था। तब मुझे उनकी कमी बहुत शिद्दत से खलती, क्योंकि तब मैं उनकी अद्भुत कहानियाँ सुनने से वंचित रह जाता। तब मैं कल्पना करता कि काश, कहानियाँ पेड़ों पर फलों की तरह उगतीं।. |
76 |
छब्बे पा' जी का बेटा सुरिंदर और बेटी सिमरन हालाँकि हमसे उम्र में कुछ साल बड़े थे लेकिन वे भी खेल-कूद में हमारे साथ ही रहते। छब्बे पा' जी जब आस-पास उड़ती सारी पतंगें काट देते और हम बच्चे दूसरे पतंग उड़ाने वालों की भी कटी पतंगें और काफ़ी डोर लूट लेते तब जा कर हमें चैन मिलता।. |
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ज़रूर छब्बे पा' जी को ये सारी कहानियाँ चाई जी सुनाती होंगी, अक्सर हम बच्चे आपस में एक-दूसरे से कहते। चाई जी को देखना, उनसे बातें करना टाइम-मशीन में बैठकर प्राचीनकाल में चले जाने जैसा था। पीछे मुड़ कर देखने पर अब तो मुझे यही लगता है, उनकी एक-एक झुर्री में जैसे सैकड़ों साल बंद पड़े थे।. |
78 |
दूसरी ओर छब्बे पा' जी का बेटा सुरिंदर था। उससे बात करना टाइम-मशीन में बैठ कर सुदूर भविष्य में निकल जाने जैसा था। पीछे मुड़कर देखने पर अब मुझे यही लगता है, सुरिंदर हमेशा हेलीज़ कॉमेट, कॉमेट शूमाकर, बिग बैंग, ब्लैक-होल, रेडियो-टेलेस्कोप, रेड-स्टार, लाइट-इयर्स आदि की बातें किया करता था।. |
79 |
वह तीखे नैन-नक्श, गेंहुआ रंग और भरी-पूरी गोलाइयों वाली सोहणी मुटियार (सुंदर युवती) थी। मुझे उसके साथ रहना, उससे बातें करना अच्छा लगता था। तब मैं तेरह साल का हो गया था और साथ उठते-बैठते या खेलते-कूदते जब कभी मेरी नाक में उसकी युवा देह-गंध पड़ती तो मेरे भीतर एक नशा-सा छा जाता।. |
80 |
चाई जी भी हमारे साथ आई थीं। उस दिन उन्होंने जो मक्की की रोटी और सरसों का साग खिलाया था उतना स्वादिष्ट खाना मैंने कभी नहीं खाया था। लगता था जैसे उनके हाथों में जादू हो। उसी दिन सिमरन ने मुझे अकेले में 'पिच्छे-पिच्छे आंदा, मेरी चाल वेहंदा आईं, चीरे वालेया वेखदा आईं वे, मेरा लौंग गवाचा' गीत सुनाया था।. |
81 |
आतंकवाद अपने चरम पर था। धर्मांध आतंकवादी हिंदुओं को बसों से उतार कर गोलियों से भून देते थे। दूसरी ओर सुरक्षा-बलों की गोलियों से कई निर्दोष सिख युवक भी मारे जा रहे थे। चारों ओर दहशत का माहौल था, दर्दनाक वारदातें हो रही थीं। पंजाब के दरियाओं में आग लग गई थी। ऐसे माहौल में जान के लाले पड़े हुए थे।. |
82 |
बिल्कुल अपनी ममता की तरह। मुझे बात अंदर कहीं चुभ गई तभी तो मैं हिल डुल नहीं पा रही। हाथ पैर शरीर सुन्न से रजाई के अंदर न रो पा रहे हैं न चुप ही रह पा रहे हैं। करीब पौने, आधे घंटे का यह नाटक अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर धीरे धीरे शांत हो रहा है। गनीमत है कि इस समय घर में कोई नौकर चाकर नहीं।. |
83 |
हम दो या कभी कभी के लिए तीन...निरर्थकता का बोध मुझमें आता जाता है। बेचैन गिलहरियाँ मुझे सहला रही हैं। अपनी भावनाओं को मैं गिलहरी में देख रही हूँ उसकी संवेदनशीलता में मैं खुद कहीं हूँ। इसकी बेचैनी शांत होने का नाम नहीं ले रही। दाना, पानी उसके मुँह में नहीं केवल इधर उधर घूमती उसकी गरदन और झूलती पूँछ।. |
84 |
दुख तो दूसरों की आँखों में भी नहीं दिखे तब ही इंसान होना सार्थक होता है ऐसा बाबू कहते। बाजार में बाबू चलते तो न आँख नीची न आवाज में कोई कमजोरी बल्कि जल्दी से उस समय को बिता कर ऊँची कालर से चलते अच्छे समय को ले आने का उत्साह उनमें कूट कूटकर झलकता रहता। जोश कभी कम नहीं दिखा।. |
85 |
बचपन कहीं चला गया। बात बात की हँसी ने दूसरा घर खोज लिया। शायद इसी को व्यावहारिक भाषा का परिपक्व होना कहते होंगे। हर समय समझदारी की बात, व्यवहार भी वैसा ही। बिना सोचे बोलने की मनाही। हँसने हँसाने का मन कभी हो तो चुटकुलों, दूसरों की नादानियों, चालाकियों और बेवकूफ बनाने की कला पर किस्से एकत्रित किए।. |
86 |
एटलस देखती तो दुनिया के दूर बसे देशों को देख लेने का मन होता। कल्पना में घूमती रहती। शायद उसे मेरे मन का पता मेरी भाव भंगिमा से चल गया होगा तभी तो एक जन्मदिन पर ग्लोब ही ले आई। रात को बिन्दु दिखते वो सारे शहर, शब्दों में देश जिन्हें मैं घूमना चाहती थी दिखाकर उनकी दूरी समझाती रही थी।. |
87 |
माँ के रूप में नहीं एक औरत की तरह भी हम दोनेां ने समझा है एक दूसरे को। इस कहावत को झुठलाते हुए "नारि न सोहे नारि को रूपा।" हर विषय पर हम बहस करते, साथ घूमते, सिनेमा, शॉपिंग होटल सब। शायद मैंने उसे सिखाकर अपने लायक बनाया था और अब उसने सीखकर खुद को समय के लायक बना लिया है।. |
88 |
उन्हें किसी पर विश्वास नहीं रहा अपनी बेटी पर भी नहीं। उनकी बेटी का तो अपना परिवार है। बेटी के लिए पति और उसके बच्चे उसके लिए पहली प्राथमिकता हैं फिर माँ तो उसके बाद ही आएगी। सम्मान अलग बात है। रोज रोज की प्राथमिकताएँ केवल सम्मान पर नहीं होतीं। प्यार, प्रेम ज्यादा जरूरी है।. |
89 |
कितनी विविधता आ गई है स्त्री के जीवन में। हाथ में बेलना वाली स्त्री तो अब किसी की कल्पना या कार्टून में भी नहीं आती। अब तो स्त्री ही नए भौतिक जगत का परिचय करा रही है। चाहे सुन्दर को और सुन्दर बनने की चाहत हो, कौन सा साबुन लगायें, कौन सा तेल खायें, चाय, कॉफी के ब्रैंड बताती औरतें हर जगह।. |
90 |
और बहुत सी चीजें हैं उसे भरमाने के लिए। अंदर से कहीं मैं बहुत बहुत खुश हो रही हूँ। बेटी को इक्कीसवीं सदी के लायक बनते देख रही थी। फिर दुख भी हुआ रिश्तों की परिणति देखकर। माँ के लिए यह रवैया... यह मनोभाव। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, इसके साथ भी देखने वालों का रिश्ता रह जायेगा।. |
91 |
जब कभी किसी बच्चे को रोते सुनती हूँ तो लगता है कि दुनिया का सबसे कर्कश शोर सुन रही हूँ। बच्चे की मुस्कुराहट में मुझे साँप की फुफकार सुनाई देती है। तुम नहीं समझ पाओगे। आज पहली बार तुमने कहा कि हम दोनों शादी करेंगे और हमारे बच्चे होंगे। आज से पहले तुमने बच्चों की बात कभी नहीं की।. |
92 |
दोनों ने हमेशा अपने वर्तमान के बारे में बातें की हैं, अपने अपने कैरियर के बारे में सोचा है, भविष्य की कल्पनाएँ की हैं, किन्तु कभी भी अपने अतीत एक दूसरे के सामने नहीं खोले। विजय नेहा को खोना नहीं चाहता। किन्तु वह नेहा की बात को बिना विचार किये मान भी नहीं लेना चाहता। पेशे से वकील है।. |
93 |
नेहा ने फ़्लैट भी घाटकोपर से बहुत दूर लिया है। लोखण्डवाला अँधेरी में। अपने माँ बाप से दूर रहना चाहती है। उनके प्रति एक चुप्पी साध रखी है। कुछ कहती नहीं। बस माँ की बात सुन लेती है और कड़वाहट से भरी मुस्कान चेहरे पर ले आती है। पूनम को समझ ही नहीं आता कि बेटी को वापिस बुलाए तो कैसे।. |
94 |
किन्तु जब इन खेलों का महत्व था, उन दिनों नरेन के एक दोस्त की पत्नी ने होली स्पिरिट में अपने पुत्र को जन्म दिया। नरेन, पूनम और नेहा भी नये मेहमान को देखने अस्पताल गये। नरेन और पूनम ने बच्चे को शगुन डाला और नेहा उसके निकट जा कर खड़ी हो गई। वह उस सफेद कपड़े में लिपटे शिशु को देखे जा रही थी।. |
95 |
अब उसे ज़िद है कि पालना जल्दी से साफ़ किया जाए ताकि काका उसमें लेट सके। वो अस्पताल से आने वाले ब्लड वाले मिन्कु के लिये कपड़े बनवाना चाहती है। आजकल अपने आपसे बातें करती रहती है। घर के किसी कोने को पकड़ कर बैठ जाती है। नरेन दूर से देखता है। पूनम खुश है कि नेहा नये आने वाले मेहमान को लेकर उत्साहित है।. |
96 |
एकाएक सहम गई नेहा। अचानक बड़ी हो गई। आँसुओं को आँखों की सीमा के भीतर ही रोक लिया। बाहर नहीं लुढ़कने दिया। आज पहली बार पूनम ने अपनी नेहा से ग़ुस्से में बात की थी। नेहा पूरी तरह से चकराई खड़ी थी। वह शाम तक पालने के निकट भी नहीं गई। शाम को जब नरेन घर आया तो वह अपने पापा के साथ चिपक कर खड़ी हो गई।. |
97 |
पूनम का पूरा दिन अब मिन्कु और चिन्कु की देखभाल में ही बीतने लगा। नेहा के हिस्से में चिड़चिड़ापन बढ़ता जा रहा था। पूनम को स्वयं हैरानी भी होती कि न चाहते हुए भी यह सब कैसे हो जाता है। नरेन आजकल दफ़्तर के काम से कुछ अधिक ही दौरों पर रहने लगा था। पूनम पर ज़िम्मेदारी का बोझ बढ़ता जा रहा था।. |
98 |
आँसुओं को अब आँखों की कैद में रोक पाना छोटी से नेहा के लिये कठिन हो रहा था। दर्द शरीर से कहीं अधिक अब दिल में हो रहा था। दिमाग़ सुन्न हो रहा था। अल्मारी खोली। सभी कपड़े एक ही रंग के लग रहे थे। यूनिफ़ॉर्म ढूँढ पाना मुश्किल होता जा रहा था। बिना इस्तरी किये कपड़े पहन लिये।. |
99 |
आप चाहें तो फुल-टाइम बाई रखिये। मैं आपको एक बात साफ़ साफ़ बता दूँ कि इस हालत में लड़की पर काफ़ी दबाव बन रहा है। बाद में आपको उसे किसी साइकेटेरिस्ट को दिखाना पड़ सकता है। ठीक यही रहेगा कि आप अपने पति से मामला डिस्कस करें और इससे पहले कि बात हाथ से खिसकने लगे, इसका कुछ इलाज ढूँढने की कोशिश करें।. |
100 |
मेरे लिये दिन भर इन बच्चों की देखभाल ही ज़िन्दगी बनकर रह गया है। मिन्कु रोता है तो चिन्कु भी रोता है। फिर नेहा भी अभी है तो बच्ची ही न। बालसुलभ गलतियाँ करती है। मुझे लगता है कि अब बड़ी हो गई है। इसे ज़िम्मेदारी समझनी चाहिये।... बस इसी में गड़बड़ हो जाती है। कुछ कठोर शब्द कह जाती हूँ उसे।. |
101 |
गर्मी की छुट्टियों में जब घर आती तो उसका अकेलापन और बढ़ जाता। मिन्कु और चिन्कु बहुत ही विशेष जुड़वाँ बच्चे थे। बस आपस में एक दूसरे के साथ ही मग्न। नेहा उनके लिये बस एक नाम था। बहन के साथ लगाव जैसी कोई स्थिति बनने की उम्मीद करना उनके साथ अन्याय होता। पूनम और नरेन ने कोई कोशिश भी तो नहीं की।. |
102 |
नेहा एक बहुत ही सेंसिटिव लड़की है। क्या तुमने महसूस नहीं किया कि वो हमसे कभी कुछ भी नहीं माँगती... जो हम ले देते हैं, बिना किसी ना नुकर के ले लेती है। उसे होस्टल भेज कर शायद हमने उसे एक अलग संसार में भेज दिया है। मैं उस दुनिया से वापिस आने का रास्ता देख नहीं पा रहा हूँ।. |
103 |
उनकी छोटी सी खोली में दिन चींटी की चाल से घिसट रहे थे। माँ अक्सर बीमार रहने लगी थी। भाई को खो कर माँ के खो जाने के डर से घबराई बिन्नो ने सिलाई मशीन किसी कुशल कारीगर की तरह सम्भाल ली। उसके हाथ में गजब की सफाई थी। अच्छे पैसे बनने लगे थे, वो इस बार माँ की दवा-दारू के साथ कोई कोताही बरतनी नहीं चाहती थी।. |
104 |
बिन्नो के बाप से उसका दारू के अड्डे पर ही याराना हुआ था, वहीं उसे पता चला था कि रामदीन अपनी रोटी-पानी के लिए अदद लड़की ढूँढ रहा है और इसके लिए वो ब्याह का पूरा खर्चा उठाने को भी तैयार है। माँ को अपने ज्यादा दिन बचे नहीं दिखते थे वो बस अपने जीते जी बिन्नो को उसके ठौर-ठिकाने पर लगा देखना चाहती थी।. |
105 |
सूखे शरीर की जगह हष्ट-पुष्ट कद्दावर काया ने ले ली थी और चेहरा भी अच्छा खासा भर गया था। शायद मैं उसे पहचान भी ना पाती अगर उसकी आँखों में वो चमक, वो साहस ना दिखता जो आखिरी मुलाकात में दिखाई दिया था। रामदीन की धुनाई करके पनपा बिन्नो का वह दबंगई रौबदार व्यक्तित्व आज तक कायम था।. |
106 |
कहते थे बिन्नो चंदर की रखैल है, जरूर कुछ जादू टोना किया है जो वो उसकी उँगलियों पर नाचता है। सारा घर, बिजनेस सब उसी के हवाले कर रखा है। सच झूठ का तो पता नहीं पर बिन्नो एक गृहस्थन के सभी फर्ज पूरे कर रही थी, बस पति होने के नाम पर पत्नी को गालियाँ बकने, मार पीट करनें का हक उसने चंदर को नहीं दिया था।. |
107 |
मन एकदम उचट गया उसका। इतनी लापरवाही! कैसे चलेगा आदमी का धरम-करम। इंजीनियरों द्वारा मुकर्रर आयु यह पुल बीस साल पहले पूरी कर चुका है। फिर भी इसका विकल्प ढूँढने का कहीं से कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा। उलटे इसकी वजन-क्षमता से हमेशा दस-पंद्रह गुणा अधिक भार इस पर लदा रहता है।. |
108 |
चार-चार औरतों को ठोक चुका कसाई, फिर भी घर में संतति के नाम पर, इसके गोठ की गैया के थनों में भी दूध नहीं उतरा! सच पूछो, तो अंतर का डाह जलाता इसे। चाहता है, जैसे इसकी घरवालियाँ मसान का प्रेत बन गईं, ऐसे ही औरों की भी मर जाएँ। जैसे इसके घर में कोई बालक नहीं, ऐसे ही सब के घर बंजर-वीरान हो जाएँ।. |
109 |
महाकाल के भक्त चंद्रवंशी राजाओं ने आस-पास के अनेक गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए। तब से नागेश्वर महादेव के भव्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम वाले छोरों पर पंडे-पुजारियों के गाँव बसे हैं। दक्षिण-पूर्व देवदारु की घनी वृक्षावलियों से घिरा है। जबकि आबादी बहुत कम है। थोड़े मकान और उनमें भी एक फासला-सा।. |
110 |
'नागेशं दारुका वने' के अनुसार, महाकाल के एक ज्योतिर्लिंग की संस्थापना इस घाटी में है। मंदिरों से लगी, आकार में नदी, लेकिन प्रकार में अत्यंत ही एक पतली पवित्र धारा बहती है, जिसके स्फटिक स्वच्छ जल के किनारे के वृक्षों ही नहीं, बल्कि वनस्पतियों तक के प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं।. |
111 |
सहस्रों घृतबातियाँ दीपकों में बालीं, मगर चार-चार विवाह करने पर भी संतति नहीं जन्मी तो नहीं ही जन्मी। चौथी पत्नी से तो उन्होंने रात्रिपर्यंत की दीपार्चना भी करवाई, मगर इस रात्रि-जागरण के दूसरे ही दिन, वह उनका घर छोड़ किसी दूसरे पुजारी के घर बस गई और वहाँ उससे एक के बाद एक तीन बेटे हुए।. |
112 |
संतति-शोक में तिल-तिल टूटते, आखिर पिछले वर्ष दुर्गा पंडितानी भी चली गई। अंतिम साँस से पहले इतना कह गई थीं - 'शिवार्पण के बाबू, अब दूसरी लाकर गोत-वंश चलाने की उमर तो आपकी रह नहीं गई। कहने को तो मैं बेर की बेल-जैसी फली, मगर वैसी ही सूख भी गई। यह एक कच्चे सूत जैसा छोरा छोड़े जा रही और एक कन्या।. |
113 |
उससे अपना गोत-वंश नहीं चला करता। ...अब तुम रोज एक कलशी गंगाजल की मृत्युंजय महाकाल के ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाना और महाकाल शंकर से प्रार्थना करना कि प्रभो, अंतिम संतति है। गोत-वंश बचाए रखना! गोत गया, तो सब गया। भृगु, भारद्वाज, जमदग्नि आदि ऋषि-मुनियों का नाम भी आखिर आज तक गोत से ही चल रहा है।. |
114 |
हाथ-पाँव एकदम सूखे-से हो चले। माथे पर की नसें तन गईं। त्वचा बूढ़ों की-सी हो आई। पेट बढ़ गया और ओठों की पपड़ियाँ सूख चलीं अब आँखों की पुतलियाँ बिना जल के बादल-जैसी नीरस प्रतीत होने लगीं। ...यानी लक्षणों से देखें, तो शिवार्पण के बचने की आशा दिन-पर-दिन कुछ धुँधली ही होती जा रही।. |
115 |
जलघड़ी रीती कुछ, तो जनार्दन पंडा ने खिड़की से बाहर की ओर झाँका - सूर्य देव क्षेत्रपाल धुरी की ऊँची चोटी पर देवदार वृक्ष का सहारा लिए हुए-से ठहरे थे और उनका प्रभामंडल देवदारुओं से भरे अरण्य में ही थम गया-सा आभासित होता था। जैसे घाटी कहती हो कि आगे कहाँ जाओगे, यहीं विश्राम करो।. |
116 |
सूर्योदय और सूर्यास्त, दोनों काल के अद्भुत-से बिंब बना देते हैं। सूर्य वही, लेकिन परिदृश्य भिन्न, तो छवियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। दोपहरी को जो सूर्य सारी पृथ्वी को तपाता भाषित होता, संध्या को वहीं अरण्य की गोद में स्थान खोजता। महाकाल की घाटी में काल और प्रकृति का संगम देखते ही बनता।. |
117 |
जनार्दन को लगा कि तारामती की आँखों में जो प्रश्न उभरा है, वह मृत्युंजय घाट में अर्थी पहुँचने नहीं, बल्कि शिवार्पण की मृत्यु की आशंका के कारण। उन्होंने खिड़की बंद कर दी कि कहीं तारामती की भी आँखें श्मशानघाट की ओर उठ गईं, तो डरेगी और डरे हुए का साथ बीमार बच्चों के लिए और भी बुरा होता है।. |
118 |
तारामती का माथा सहलाते हुए, वे उसका ध्यान इस ओर से हटाने लगे कि शिवार्पण को कुछ हुआ है। साथ ही, धीरे-धीरे शिवार्पण की मुँदी आँखों को स्पर्श करते हुए। तभी शिवार्पण की आँखों के पपोटे मकड़ी के जाले में फँसी मक्खी के पंखों की भाँति थरथराए और सूखे ओंठ खड़खड़ा-सा उठे - 'बा-बा-बा'।. |
119 |
जागेश्वर के तिथाण (तीर्थस्थान) में अंत्येष्टि से मोक्ष पाने दूर-दूर तक के लोग वृद्ध माता-पिता को यहाँ लाते रहे हैं। कभी-कभी तो दो-दो तीन-तीन चिताओं की लपटों को निष्काम आँखों से देखते हुए विषादग्रस्त यजमानों को सांत्वना देनी पड़ती कि नाशवार देह की अंतिम स्थिति यही अवश्यंभावी है।. |
120 |
घृताहुति के साथ ही चिता में लपटें उठने लगीं, तो जनार्दन पंडा ने घी से चुपड़े हाथों को, जल्दी से पोंछ लिया और इतना कहते, चल पड़े - 'यजमान, दाह-संस्कार की क्रिया निबटा चुका। कपोत-बंधन के समय तक फिर आ जाऊँगा। घर में अकेली कन्या और बीमार बच्चा है। जरा उनकी भी सुधि ले लूँ...।. |
121 |
एकाएक सुध आई कि जजमानों को आश्वासन देते आए थे, तो बोले-'नटवर भाई, दाह-संस्कार तो करा आया था। अब उतनी दूर जाने की शक्ति नहीं। चिता निबटने को होगी। तू जरा कपोत बैठवा आता। दक्षिणा-सामग्री भी तू ही ले जाना! मसान लोभ का स्थान नहीं। दान-दक्षिणा पर उसका ही हक हुआ, जो पूरी अंत्येष्टि निबटाए।. |
122 |
तारामती बेचारी ज्यादा घबरा गई। आजकल नटवर पंडित जरूर आ जाया करते। तारा को थोड़ा सहारा हो जाता। नटवर पंडित कभी-कभी खुद रात भर जागते और तारामती को सुला देते - 'तू सो जा, चेली! मैं तो दिन में नींद पूरी कर लूँगा। रात को तो उलूक पक्षी हुआ! भजनों में ही रात काटने की आदत-सी पड़ गई।. |
123 |
...मगर जब से असली ज्ञान पाया, आत्मा को शिवलिंग की तरह कठोर बना लिया। वर्षों तक जलाभिषेक करने पर भी शिवलिंग कोरे-का-कोरा ही रहता। शिव को इसीलिए मृत्युंजय कहा है जनार्दन! जिस पुरुष ने चित्त कठोर बनाकर संतति-मोह से अपने को मुक्त कर लिया, वही मृत्युंजय पुरुष बन जाता, क्योंकि मोह ही तो मृत्यु है।. |
124 |
महाकाल ने उसे दर्शन दिए और वरदान माँगने को कहा, तो ब्राह्मण ने कहा - 'मुझे अपने सातों पुत्र चाहिए, प्रभो!' ...तो भाई जनार्दन शिवजी बोले - 'तथास्तु!' और उस ब्राह्मण को लेकर पहुँचे यमलोक। वहाँ एक वृक्ष पर उन्होंने ब्राह्मण को अपने साथ बिठा लिया कि अभी थोड़ी देर में तुम्हारे बेटे यहीं आएँगे।. |
125 |
थोड़ी ही देर के बाद, वहाँ पर एक-एक कर, ब्राह्मण के सातों पुत्र इकट्ठा हुए, तो आपस में बोलने-बतियाने लगे। सब उस ब्राह्मण को गाली देते और हर एक यही कहता कि - क्या करूँ, मैं तो ज्यादा बचा ही नहीं, तो पूँजी के साथ ही ब्याज भी वसूल कर लाता। ऐसा रुलाता ब्राह्मण को कि भूल जाता बनिए का ऋण मारना।. |
126 |
तुझे भी यही समझकर संतोष करना चाहिए कि ससुरे जितने चले गए, सब सूदखोर बनिए थे। एक यह है, तो अगर सपूत न होकर, वही सूदखोर निकला तो ऋण उतरते ही यह भी चला जाएगा। एक जो दुर्गा भौजी इन सूदखोरों का निमित्त थी, वह भी चली गई। तुझे अब, स्वयं को ऋणमुक्त हुआ, ऐसा अनुमान करते हुए, हरिभजन में चित्त लगाना चाहिए।. |
127 |
पत्नी मर गई तो बोले - समय लेने वाली गई, अब पूरा समय भजन को है। देख, यह बेटी ही तेरा सच्चा धन है। कन्या के हाथों का जल, पुत्रों के पिंड-काष्ठ से ज्यादा पवित्र होता है, जनार्दन! ...मगर मोह ज्यादा इसके प्रति भी मत रखना, क्योंकि धन चाहे सच्चा हो, या झूठा, जाने को शोक व्यापता जरूर है।. |
128 |
होली का नाम सुनते ही अतीत के न जाने कितने चित्र गौरी शंकर की आँखों के आगे घूम गये। न जाने कितनी यादें थीं जो फिर से मन की गहराइयों को छू गयीं। टेसू के फूलों का रंग और उसकी महक, ढोलक की थाप और ढोल की धमक, एकसाथ झूमने-गाने की मस्ती और अकेलेपन की कसक, सब कुछ जैसे एक पल में महसूस कर लिया उन्होंने।. |
129 |
गाँव-घर से दूर उनकी पहली होली थी। न कोई संगी-साथी न घर-परिवार के लोग, अकेले बैठे सोच रहे थे कि क्या करें, तभी कुछ जानी-पहचानी आवाजें उनके कानों तक पहुँचीं, देखा बाहर कई सहकर्मी प्रतीक्षा कर रहे थे। बातों-बातों में वे उन्हें मिल-कम्पाउण्ड तक ले आये। वहाँ की रंगत देख कर गौरी शंकर की उदासी जाती रही।. |
130 |
आज उनकी नींद जल्दी ही खुल गई थी। सर्दी के दिन थे। दिन अभी नहीं निकला था। आसमान लालिमा लिये सूरज की प्रतीक्षा कर रहा था। पत्नी हमेशा की तरह उठ गई थी। नहाकर अपने पूजा के बर्तन माँज रही थी। तभी उन्हें उठा देख उनके लिए पानी ले आई और चाय बनाने चली गई। वे बाहर अखबार लेने आ गए।. |
131 |
आज सुबह जल्दी उठने की कोई विशेष बात नहीं थी, पर चार दिन पहले ही गोष्ठी में हुए वाकए से वे अत्यंत रोमांचित थे। एक युवक उनकी कविता से अत्यंत प्रभावित हुआ था, इतना अधिक कि गोष्ठी के बाद वह रुका रहा और उनकी कविताओं की बहुत तारीफ की। वे बहुत खुश हुए। उन्होंने भी उसकी रचनाओं के बारे में पूछा।. |
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कभी-कभी कोई उनकी कविताओं पर व्यर्थ टीका-टिप्पणी कर देता, पर वे कभी विचलित नहीं होते थे। वे दिवाकर को भी यही कहेंगे कि टीका-टिप्पणी से कभी परेशान नहीं होना है, क्योंकि साहित्य की दुनिया में दोनों तरह के लोग मिलते हैं। एक सच बताने वाले और दूसरे जान-बूझकर हतोत्साहित करने वाले।. |
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नहाते समय वे दिवाकर के बारे में ही सोच रहे थे। उन्हें अपनी जल्दबाजी पर हँसी आ गई। कहते क्या, यही कि रात को देर तक लिखते रहते हैं, टाइम ही नहीं मिलता। नहा-धोकर नाश्ता किया, तब तक ग्यारह बज चुके थे। वे पुनः अपने कमरे में जा पहुँचे। इधर-उधर बिखरी किताबों को व्यवस्थित किया।. |
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दिवाकर को मूल्यों के बारे में बताना जरूरी है। जीवन में मूल्यों का ध्यान रखना और अपने साहित्य में ईमानदारी से उसे बतलाना। उन्होंने यही तो किया है, अपने साहित्य के माध्यम से सदैव लोगों को मूल्यों का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनका संपूर्ण साहित्य यही तो संदेश देता है।. |
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उसे कभी उनसे कोई शिकायत नहीं रही। जहाँ उसके बाकी दोस्तों की अपने माता पिता से विचार न मिलने के कारण तनातनी रहती थी वहीं उसकी बातें माँ बाबूजी से बेहतर तरीके से कोई समझता ही नहीं था। उसने जीवन के सबसे अच्छे पल अपने घर में उन्हीं के साथ बिताये थे। उसे अपने भीतर अकेलापन उगता महसूस हुआ।. |
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अपनी डॉक्टर खुद थी वो। खुद ही आयुर्वेदिक-होमियोपैथिक खाती रहती थी। चूरन चाटती रहती थी। जिस दिन उल्टी में खून के थक्के निकले उस दिन बताया। लास्ट स्टेज में बीमारी डिटेक्ट हुई। उसने कभी शिकायत ही नहीं की। पता ही नहीं चला कि कैंसर पूरे पेट से होता हुआ लंग्स तक पहुँच गया है।. |
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बिना उसकी ओर देखे उसने जैसे अपने आप से कहा - "शिवा, मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है! मेरी बिंदा! छह महीने से मैं उसे ढूँढ़ रहा था और वह यहाँ बैठी थी मेरे सामने। ... शिवा, मुझे माफ कर देना! मुझे आज वो बहुत दिनों बाद दिखी तो मैं अपने को रोक नहीं पाया।" और वह फफक कर रोने लगा।. |
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उसके बाद स्पर्श की नमी को तो भूल ही गई थी वह। सबकुछ भीतर जम गया था। नहीं सोचा था कि कभी यह बर्फ़ पिघलेगी। पर स्पर्श ऐसा भी होता है- हवा से हल्का, लहरों पर थिरकता हुआ और गुलाब की पंखुड़ियों-सा मुलायम, यह तो उसने पहली बार जाना। अब तक वह अपने जीने की निरर्थकता को स्वीकारती आई थी।. |
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पाँच सालों के लम्बे अरसे के बाद इस शहर में आई थी, जहाँ उसने अपना बचपन बिताया, जहाँ बड़ी होते-होते बहुत से फूलों को खिलते और मुरझाते देखा था, जहाँ पक्षियों के जोड़ों को देखकर अपनी आँखों में अनेक सपने सजाए थे, जहाँ एक दिन सजी-सजाई डोली में बैठकर वह अपने मैके से बिछड़ गई थी।. |
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रास्ते चौड़े हो गए थे। टाऊन हॉल के पास से गुज़रते, उसने देखा कि सभी दुकानें पक्की हो गईं थीं। टाऊन हॉल के सामने एक बगीचा बन गया था। बहुत सारे फूल राहगीरों की ओर देखकर मुस्करा रहे थे। चौराहे पर सिग्नल लाइट्स लग गई थीं और रास्तों पर बीमार बल्बों की जगह पर ट्यूब लाइट्स लटकाई गई थीं।. |
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वसुधा सोच रही थी, देखते-देखते चार सावन तो बीत गए थे। जब वह हर रोज़ दरवाजे पर किसी चिट्ठी के आने के इन्तज़ार में जाकर खड़ी होती, जिसमें पिता ने लिखा हो कि यह सावन तुम यहाँ आकर बिताओ। पर हर सावन में उसे निराशा ही मिली। इसके पीछे जो सबब हो सकता था, उसका भी उसे कुछ-कुछ अंदाज़ा था।. |
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अचानक उसे लगा कि वह संकीर्ण गली आ गई थी, जहाँ बचपन में वह सहेलियों के साथ धूल-मिट्टी की परवाह किये बिना खेला करती थी। पड़ोस की कुछ औरतें व बच्चे, ताँगे की आवाज़ सुनकर बाहर निकल आए। वसुधा को याद आया कि वह भी इसी तरह आवाज़ सुनकर बाहर निकल आया करती थी; जब कभी कोई ताँगा या मोटर उसकी तंग गली में आती थी।. |
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खटिया वहीं थी, जहाँ पहले थी। कोने में वही टेबिल रखी थी, जिस पर किताबें रखी हुई थीं। शायद सांतुना की थीं या शायद संजय की... टेबल-लैम्प वही था, सिर्फ़ उसका रंग बदला हुआ था। उसे लगा शायद संजय ने दिवाली पर लैम्प को रंग-रोगन लगाया हो। कुल मिलाकर उसे कोई खास फर्क़ नज़र नहीं आया।. |
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हिमाचल के छोटे छोटे गाँव आते रहे, जाते रहे। आशा का दिन के दूसरे खाने का समय हो गया था। हिमाचल के एक ढाबे में रुके, और फिर से एक पंजाबी स्टाइल खाना हो गया। गुरुदीप के पास सिर्फ पंजाबी गाने की सीडी थी। कुछ देर सुने, मगर अशोक को इतना कुछ जमा नहीं। गुरु से बात करना शुरू किया।. |
145 |
इधर-उधर हाथ फैलाकर एक लाइट का स्विच ढूँढ निकाला। अँधेरा चीरकर रोशनी आई मगर अँधेरे को मात नहीं कर पाई। बल्ब छोटा था और उसको भी शायद ठंड लग गई थी। रोशनी हर कोने में ठीक से नहीं पहुँच रही थी और जहाँ अलमारी में सामान रखा था वहाँ घनघोर अँधेरा कायम था। साथ में लाई हुई टोर्च निकालकर अशोक ने जाँच शुरू की।. |
146 |
कमरे में कोई तापक व्यवस्था नहीं दिखी। बाथरूम में गरम पानी के लिये एक मशीन लगाई गई थी लेकिन लगा ऐसा कि मशीन का सही समय सही मात्रा में गरम पानी प्रदान करने का कोई इरादा नहीं था। सुबह उठते ही परितोष से बात करनी होगी। सोने की तैयारी में अशोक ने अपने सब वस्त्र उतार दिए, सिर्फ थर्मल पहने रखा।. |
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नाश्ते के समय डाइनिंग टेबल पर सब साथ में बैठे थे। परितोष की पत्नी स्नेहलता और परितोष की बेटी प्रिया परोस रही थी। फिर से जबरदस्त स्वादिष्ट खाना बना था। परितोष भी वहाँ आकर रुका था। प्रिया के दो बच्चे पीयूषी और पार्थ भी अशोक के दोस्त बन गए थे। दोनों बच्चे सुंदर, होशियार, और संस्कारी थे।. |
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आजकल यह रोज का क्रम हो गया है। वह आईटियन हो गई है। रात में काम करना उसे कभी अच्छा नहीं लगता था। बी एच यू में रहते हुए कल्पना भी नहीं की थी कि कभी वह रात में विभाग में हुआ करेगी। लेकिन यह कैम्पस सुरक्षित है। बल्कि रातों में लैब यूँ गुलजार रह्ते हैं जैसे रात नहीं दिन हो। एक बजे रात, रात नहीं लगती।. |
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रात को लैब से लौटते हुए स्टाफ कैफेटेरिया में वेज मंचूरियन खा लिया था। इसलिये पेट भरा है और नींद गायब है। स्टाफ कैफेटेरिया खुला हुआ था, रात भर खुला रहता है। और भी कैफे हैं जो सुबह चार बजे बन्द होते हैं। इस संस्थान में सुबह चार बजे रात होती है और आठ बजे सवेरा। छात्रों को चार घंटे सोने की मुहलत।. |
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एक पल को मेरी नजरों में खुद के ड्राइंगरूम में लगे हेण्डलूम के खादीवाले परदे फैल गए। फैले इसलिए कि वे सरसराते तो थे ही नहीं अपनी रफ खद्दर भारी भरकम सरफेस की वजह से। उसके घर में परदे सरसराते हुए अपने परदा होने का और परदा लहराने का अहसास कराते हुए मुझे मेरी पसंद पर ही शर्मिन्दा कर रहे थे।. |
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अपने कॉलेज जाने से पहले तक भाग-भाग कर पूरे घर की व्यवस्थाएँ सँभालने वाला दृश्य आँखों में तैर गया। मैला कुचैला सूट पहने पहले बबलू का नाश्ता, फिर बाबूजी की दलिया, विनोद का फ्रूट जूस और लंच बाक्स, सब के बाद अपना लंच बाक्स। सब करते करते थक जाती हूँ। बस यहाँ से जाकर मैं भी फ्रिज को अपटेड करूँगी।. |
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अभी तो पहला ही दिन था, थक गयी थी जल्दी ही सो गयी। अगले दिन सबेरे उठी। जल्दी उठने की आदत थी, तीनों की चाय बना ली अखबार के साथ चाय पी। तब तक शैरीन तैयार होकर बाहर आ गयी थी वह निकलने के मूड में थी कोई फारेन से आ रहे हैं जल्दी जाना था। मैं भी तैयार होने चली गयी। मेरा लंच विज्ञान भवन में ही था।. |
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फिर लगा अगर उसे मिलना होगा या मिलवाना होगा तो बुलाएगी बाहर। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ देर बाद मेरे रूम के सामने से दोनों निकले। कदमों की आहट से पता चल रहा था फिर दरवाजा लॉक हुआ। मैं सकते में आ गई "ओह गॉड, दिस गर्ल...।" कुछ देर तक उनके कमरे से कुछ अनकही आहटें, आवाजें आती रहीं फिर सब शान्त हो गया।. |
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खरीददारी के लिए लोगों की भीड़ इस दिन से लेकर दीपावली तक जमकर रहेगी। ऐसे में हम पुलिसवालों को अपनी तरफ से बिना किसी दिन छुट्टी किए अलग अलग जगह बारह बारह घंटे ड्यूटी के लिए तैयार रहना होगा। क्या पुरुष और क्या महिला कांस्टेबल, सभी की खाट खड़ी रहेगी। जैसे त्योहार के दिन हमारे लिए बने ही न हों।. |
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यह तो उसने खुद की मेहनत से यह सब हासिल किया है। कितनी खुश थी वह। एक साल की ट्रेनिंग से निकलकर जब वह पक्की हुई तो उन्नीस साल की उम्र का जोश देखते ही बनता था। सोचती थी फिल्मों की तरह अपराधियों को पकड़ेगी और जब रास्ते से निकलेगी तो मोहल्ले वालों पर रौब जमेगा। मगर जल्द ही सच उसके सामने आ गया।. |
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ऐसे लग रहा है कि आज तो सामान की खरीदारी मुफ्त में हो रही है। सजी धजी दुकानें और हर दुकान पर खास सजावट। किसी ने फूलों की तो किसी ने छोटे बल्बों की। चारों ओर अगरबत्ती और फूलों की खुशबू ने मिठाई की महक के साथ मिलकर उत्सवी माहौल की उमंग और बढ़ा दी। बच्चों और महिलाओं के चेहरे पर चमक दिखाई दी।. |
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ड्यूटी खत्म होते ही वह बच्चों की तरह घर की ओर दौड़ पड़ी। घर पहुँचकर मुँह हाथ धोकर खाने पर टूट पड़ी वह, उस समय बाजार के वे पकवान भी फीके लग रहे थे, जो उसे ड्यूटी के समय ललचा रहे थे। तभी उसकी नन्हीं भानजी प्रिया, जो अपनी माँ और नानी के साथ बड़े बाजार गई थी, आई और उसे देखते ही उसकी गोद में आ बैठी।. |
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वह उसे कैसे समझाती कि हर दुकान पर भारी भीड़ थी। बीच में घुसकर जूतियाँ खरीदना उसे ठीक नहीं लगा। वह तो वर्दी में थी, ऐसे में कुछ खरीदना यानी लोगों को अपनी ओर प्रश्नचिह्न भरी नजरों से घूरना सहन करना पड़ता, जो उसे सुहाता नहीं। परिणाम यह हुआ कि उसकी प्यारी प्रिया उससे रूठकर चली गई।. |
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आज उसकी ड्यूटी सोबती गेट पर थी। जो कि शहर का हृदय स्थल है। फिर से वही छह सिपाही। पर यहाँ का एक मैचिंग सेंटर चूडि़यों के लिए प्रसिद्ध है। जो कि अनु को बड़ा आकर्षित करता है। उसी के पास उन सबका जमावड़ा लगा। महिलाएँ और युवतियाँ अपनी पसंद की चूडि़याँ खरीदती मनभावन लग रही थीं।. |
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अनु बड़े मनोयोग से उन्हें देख रही थी कि अचानक देखा कि साथ में खड़े साथी कांस्टेबलों में जो कुँवारा था, उसे एकटक देख रहा था। जब अनु की नजर उससे टकराई तो वह मुस्कुराया। अनु को उसका देखना बुरा तो लगा, लेकिन तहजीब के चलते उसने हौले से मुस्कुराकर जवाब दिया। भीड़ भरे बाजार में दिन कब बीता पता ही नहीं चला।. |
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रास्ते में छोटी छोटी लड़कियों को अपने घर के बाहर गोरधन का चौरस और स्वस्तिक बनाते देख उसे अपने बचपन की याद हो आई, जब वह शाम के समय अपनी बड़ी दीदी के साथ बैठकर उसे बनाने में मदद करती थी। घर की दहलीज पर उसे बनाने से पहले बड़ी दीदी उस जगह को पहले पानी से धोती फिर गोबर से लीपकर सूखने को छोड़ देती।. |
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उसके बाद लाल और सफेद मिट्टी का चौकोर डिब्बा सा बनाकर उसके बीच में स्वस्तिक और बाहर की ओर सफेद मिट्टी के किनारे किनारे सुंदर बेलें बनाते हुए गीत गाती। दोनों छोटी बहनें उनके पीछे पीछे चलती रहतीं कि कब दीदी हमें भी ऐसा करने को कहे। उस समय दीदी का हर आदेश दौड़कर पूरा करतीं।. |
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कल तो दीवाली थी ना, और माँ को बहुत काम था। इसलिए अनु ने माँ से चाय का भी नहीं कहा। खुद ही हाथ मुँह धोकर चाय बनाई और टीवी के आगे बैठ गई। ये टीवी वाले भी इतना त्योहार-त्योहार चिल्लाते क्यों चिल्लाते हैं, सोच रही थी। उन्हें देखकर बाजार में सड़क किनारे बैठे रेहड़ी वालों की चिल्ल-पौं याद आ गई।. |
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सुबह मशीन की तरह पहुँच गई महात्मा गाँधी मार्ग। जहाँ उसे चौकस रहना था। आज दीवाली के कारण सड़कें साफ थीं और इस बाजार में वाहनों की आवाजाही बंद थी तो दिन में भी कानों को आराम महसूस हुआ। लोग पैदल चल रहे थे, भीड़ बहुत थी। कई सटकर निकले तो कुछ उनमें से दूरी रखते हुए तेजी से आ जा रहे थे।. |
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छत्तीसगढ़ के इस इलाके में, मौसम-बेमौसम आँधीनुमा हवाएँ चलती हैं। उन्होंने मेरी खिड़की के बंद पल्लों को ढीला कर डाला है। खिड़की बंद रखने का एक कारण यह भी है कि बाहर दीवार से लग कर खड़ी हुई हरी-घनी झाड़ियों के भीतर जो छिपे हुए, गहरे, हरे-साँवले अंतराल हैं, उनमें पक्षी रहते हैं और अंडे देते हैं।. |
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वह लगभग तीन-फीट लंबा अजगर था। खूब खा-पी कर के, सुस्त हो कर, वह खिड़की के पास, मेरी साइकिल पर लेटा हुआ था। उसका मुँह 'कैरियर' पर, जिस्म की लपेट में, छिपा हुआ था और पूँछ चमकदार 'हैंडिल' से लिपटी हुई थी। 'कैरियर' से ले कर 'हैंडिल' तक की सारी लंबाई को उसने अपने देह-वलयों से कस लिया था।. |
167 |
उसे मरा हुआ जान, हम उसका अग्नि-संस्कार करने गए। मिट्टी के तेल की पीली-गेरूई ऊँची लपक उठाते हुए, कंडों की आग में पड़ा हुआ वह ढीला नाग-शरीर, अपनी बची-खुची चेतना समेट कर, इतनी जोर-से ऊपर उछला कि घेरा डाल कर खड़े हुए हम लोग हैरत में आ कर, एक कदम पीछे हट गए। उसके बाद रात-भर, साँप की ही चर्चा होती रही।. |
168 |
मेरी दृष्टि उस प्रकाश-कंप की ओर लगी हुई है। एक क्षण में उसकी अनगिनत लहरें नाचे जा रही हैं, नाचे जा रही हैं। कितना उद्दाम, कितना तीव्र वेग है उन झिलमिलाती लहरों में। मैं मुग्ध हूँ कि बाहर के लहराते तालाब ने किरनों की सहायता से अपने कंपों की प्रतिच्छवि मेरी दीवार पर आँक दी है।. |
169 |
लेकिन उसी शाखा की बिलकुल विरुद्ध दिशा में, जो दूसरी डालें ऊँची हो कर तिरछी और बाँकी-टेढ़ी हो गई हैं, उन पर झुंड के झुंड कौवे काँव-काँव कर रहे हैं, मानो वे चील की शिकायत कर रहे हों और उचक-उचक कर, फुदक-फुदक कर, मछली की ताक में बैठे उस पक्षी के विरुद्ध प्रचार किए जा रहे हों।. |
170 |
उन अँधेरे गलियारों में से मैं कई-कई बार गुजरा हुँ और वहाँ किसी मोड़ पर किसी कोने में इकट्ठा हुए, ऐसी ही संस्थाओं के संचालकों के उतरे हुए चेहरों को देखा है। बावजूद श्रेष्ठ पोशाक और 'अपटूडेट' भेस के सँवलाया हुआ गर्व, बेबस गंभीरता, अधीर उदासी और थकान उनके व्यक्तित्व पर राख-सी मलती है।. |
171 |
किसी खास जाँच के एन मौके पर किसी दूसरे शहर की...संस्था से उधार ले कर, सूक्ष्मदर्शी यंत्र हाजिर! सब चीजें मौजूद हैं। आइए, देख जाइए। जी हाँ, ये तो हैं सामने। लेकिन जाँच खत्म होने पर सब गायब, सब अंतर्ध्यान! कैसा जादू है। खर्चे का आँकडा खूब फुला कर रखिए। सरकार के पास कागजात भेज दीजिए।. |
172 |
इतने में मैं दो कदम एक ओर हट जाता हूँ; और पाता हूँ कि मोटर के उस काले चमकदार आईने में मेरे गाल, ठुड्डी, नाम, कान सब चौड़े हो गए हैं, एकदम चौड़े। लंबाई लगभग नदारद। मैं देखता ही रहता हूँ, देखता ही रहता हूँ कि इतने में दिल के किसी कोने में कई अँधियारी गटर एकदम फूट निकलती है।. |
173 |
लेकिन मैदानों के इस चिलचिलाते अपार विस्तार में एक पेड़ के नीचे, अकेलेपन में, श्यामला के साथ रहने की यह जो मेरी स्थिति है, उसका अचानक मुझे गहरा बोध हुआ। लगा कि श्यामला मेरी है, और वह भी इसी भाँति चिलमिलाते गरम तत्वों से बनी हुई नारी-मूर्ति है। गरम बफती हुई मिट्टी-सा चिलमिलाता हुआ उसमें अपनापन है।. |
174 |
और उस तकलीफ को टालने के लिए हम झूठ भी तो बोल देते हैं, सरासर झूठ, सफेद झूठ! लेकिन झूठ से सचाई और गहरी हो जाती है, अधिक महत्वपूर्ण और अधिक प्राणवान, मानो वह हमारे लिए और सारी मनुष्यता के लिए विशेष सार रखती हो। ऐसी सतह पर हम भावुक हो जाते हैं। और, यह सतह अपने सारे निजीपन में बिलकुल बेनिजी है।. |
175 |
उसके पंखों की संख्या लगातार घटती चली गई। अब वह, ऊँचाइयों पर, अपना संतुलन साध नहीं सकता था, न बहुत समय तक पंख उसे सहारा दे सकते थे। आकाश-यात्रा के दौरान उसे जल्दी-जल्दी पहाड़ी चट्टानों गुंबदों और बुर्जो पर हाँफते हुए बैठ जाना पड़ता। उसके परिवार वाले तथा मित्र ऊँचाइयों पर तैरते हुए आगे बढ़ जाते।. |
176 |
वह मूर्खों का काम है। उसकी हालत यह थी कि अब वह आसमान में उड़ ही नहीं सकता था, वह सिर्फ एक पेड़ से उड़ कर दूसरे पेड़ तक पहुँच पाता। धीरे-धीरे उसकी यह शक्ति भी कम होती गई। और एक समय वह आया जब वह बड़ी मुश्किल से, पेड़ की एक डाल से लगी हुई दूसरी डाल पर, चल कर, फुदक कर पहुँचता।. |
177 |
और अब मुझे सज्जायुक्त भद्रता के मनोहर वातावरण वाला अपना कमरा याद आता है... अपना अकेला धुँधला-धुँधला कमरा। उसके एकांत में प्रत्यावर्तित और पुन प्रत्यावर्तित प्रकाश कोमल वातावरण में मूल-रश्मियाँ और उनके उद्गम स्त्रोतों पर सोचते रहना, खयालों की लहरों में बहते रहना कितना सरल, सुंदर और भद्रतापूर्ण है।. |
178 |
बिल्कुल अपनी ममता की तरह। मुझे बात अंदर कहीं चुभ गई तभी तो मैं हिल डुल नहीं पा रही। हाथ पैर शरीर सुन्न से रजाई के अंदर न रो पा रहे हैं न चुप ही रह पा रहे हैं। करीब पौने, आधे घंटे का यह नाटक अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर धीरे धीरे शांत हो रहा है। गनीमत है कि इस समय घर में कोई नौकर चाकर नहीं।. |
179 |
हम दो या कभी कभी के लिए तीन...निरर्थकता का बोध मुझमें आता जाता है। बेचैन गिलहरियाँ मुझे सहला रही हैं। अपनी भावनाओं को मैं गिलहरी में देख रही हूँ उसकी संवेदनशीलता में मैं खुद कहीं हूँ। इसकी बेचैनी शांत होने का नाम नहीं ले रही। दाना, पानी उसके मुँह में नहीं केवल इधर उधर घूमती उसकी गरदन और झूलती पूँछ।. |
180 |
दुख तो दूसरों की आँखों में भी नहीं दिखे तब ही इंसान होना सार्थक होता है ऐसा बाबू कहते। बाजार में बाबू चलते तो न आँख नीची न आवाज में कोई कमजोरी बल्कि जल्दी से उस समय को बिता कर ऊँची कालर से चलते अच्छे समय को ले आने का उत्साह उनमें कूट कूटकर झलकता रहता। जोश कभी कम नहीं दिखा।. |
181 |
बचपन कहीं चला गया। बात बात की हँसी ने दूसरा घर खोज लिया। शायद इसी को व्यावहारिक भाषा का परिपक्व होना कहते होंगे। हर समय समझदारी की बात, व्यवहार भी वैसा ही। बिना सोचे बोलने की मनाही। हँसने हँसाने का मन कभी हो तो चुटकुलों, दूसरों की नादानियों, चालाकियों और बेवकूफ बनाने की कला पर किस्से एकत्रित किए।. |
182 |
एटलस देखती तो दुनिया के दूर बसे देशों को देख लेने का मन होता। कल्पना में घूमती रहती। शायद उसे मेरे मन का पता मेरी भाव भंगिमा से चल गया होगा तभी तो एक जन्मदिन पर ग्लोब ही ले आई। रात को बिन्दु दिखते वो सारे शहर, शब्दों में देश जिन्हें मैं घूमना चाहती थी दिखाकर उनकी दूरी समझाती रही थी।. |
183 |
माँ के रूप में नहीं एक औरत की तरह भी हम दोनेां ने समझा है एक दूसरे को। इस कहावत को झुठलाते हुए "नारि न सोहे नारि को रूपा।" हर विषय पर हम बहस करते, साथ घूमते, सिनेमा, शॉपिंग होटल सब। शायद मैंने उसे सिखाकर अपने लायक बनाया था और अब उसने सीखकर खुद को समय के लायक बना लिया है।. |
184 |
उन्हें किसी पर विश्वास नहीं रहा अपनी बेटी पर भी नहीं। उनकी बेटी का तो अपना परिवार है। बेटी के लिए पति और उसके बच्चे उसके लिए पहली प्राथमिकता हैं फिर माँ तो उसके बाद ही आएगी। सम्मान अलग बात है। रोज रोज की प्राथमिकताएँ केवल सम्मान पर नहीं होतीं। प्यार, प्रेम ज्यादा जरूरी है।. |
185 |
कितनी विविधता आ गई है स्त्री के जीवन में। हाथ में बेलना वाली स्त्री तो अब किसी की कल्पना या कार्टून में भी नहीं आती। अब तो स्त्री ही नए भौतिक जगत का परिचय करा रही है। चाहे सुन्दर को और सुन्दर बनने की चाहत हो, कौन सा साबुन लगायें, कौन सा तेल खायें, चाय, कॉफी के ब्रैंड बताती औरतें हर जगह।. |
186 |
और बहुत सी चीजें हैं उसे भरमाने के लिए। अंदर से कहीं मैं बहुत बहुत खुश हो रही हूँ। बेटी को इक्कीसवीं सदी के लायक बनते देख रही थी। फिर दुख भी हुआ रिश्तों की परिणति देखकर। माँ के लिए यह रवैया... यह मनोभाव। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, इसके साथ भी देखने वालों का रिश्ता रह जायेगा।. |
187 |
इस सेवाकाल मे हिन्दुस्तान के न मालूम कितने शहर देखे ,न मालूम कितने अफसरो की कटिंग की,न जाने कितने लेफ्टीनेंटों और बैगेडियरों की हजामत बनायी। अपनी इस सेवा के दौरान उन्होंने न जाने कितनी बोलियाँ सीखीं और न जाने कितनी संस्कृतियों के अनुभव प्राप्त किये। अपना काम ईमानदारी से करते थे उस्ताद जी।. |
188 |
लखनऊ का आसमान परेवा को सुबह से शाम तक पतंगो से पट जाता है। लाल हरी नीली पीली और न जाने कितने रंगों की खूबसूरत पतंगे-तौखिया, लट्ठेदार, चौखाना, पट्टीदार और तमाम भाँति-भाँति के नामों वाली रंगीन पतंगों का मेला लग जाता आसमान पर। बच्चे महीनों पहले से इस दिन पतंग उडाने का इंतिजाम करते।. |
189 |
दिवंगत कई अफसरो के चित्र उन्होंने बनाये थे और सम्मान प्राप्त किया था। उस्ताद जी हजामत बनाते तो एक घण्टा समय लग जाता लेकिन उनकी खूबी यह थी कि ग्राहक सो जाता और उनका उस्तरा चलता रहता। उस्ताद जी चेहरे के एक एक बाल को ऐसे साफ करते कि निखार आ जाता। उनकी कैंची से मानो संगीत फूटता हो।. |
190 |
चीकट बालों वाला मजदूर आता तो पहले उसके बाल धोते फिर पूरी तत्परता से कटिंग करते। उन पर न दरोगा का रोब चलता न डाक्टर वकील का। उनकी दुकान पर जो पहले आता वही उनका पहला ग्राहक बनता। वो कम बोलते और मनोयोग से काम करते। उनको चिंता बस एक ही रहती कि वो जो कर रहे हैं वह ठीक से कर लें।. |
191 |
कटिंग इतनी खूबसूरत कि क्या कहने। कनपटी पर खत लगाना हो या कलमें ठीक करनी हों, पूरी तसल्ली से उस्ताद जी का हाथ चलता। किसी के घर जाकर हजामत बनाने या कटिंग करने की नौबत आती तो उस्ताद जी साफ इनकार कर देते। अपना रोब गालिब रखने के लिए किसी के विवाह आदि में अपना हक माँगने वे नहीं जाते।. |
192 |
अध्यापकों डाक्टरों, वकीलों से जब कभी मूड में वो बात करते तो उनकी बातों में समझदारी और एक आदर का भाव झलकता। फौजी अनुभवों में ऐसा बहुत कुछ था जो वो आम आदमी को बता सकते थे। जब कोई खास ग्राहक आता तो वे इसी तरह की बातें करते और उनका उस्तरा पानी की तरह चलता रहता। उचक्के और शोहदे उनकी सैलून पर नहीं आते।. |
193 |
मंगल ने सैलून मे उस्ताद जी का हाथ बटाना शुरू कर दिया। वो चाहते भी यही थे कि मंगल काम धन्धे से लग जाये। मंगल को अब उस्ताद जी ने काउण्टर की चाभी भी दे दी, उनका मन कला की ओर खिंचने लगा। मंगल ने टेलीफोन लगवाया। नये फर्नीचर और शीशे का इंतिजाम किया। सैलून आधुनिक जरूरतों और फैशन के मुताबिक सज गया।. |
194 |
मंगल ने प्रतीक्षा करने वाले ग्राहकों के लिए खूबसूरत केबिन बनवाया। उस केबिन में टेलीविजन और कुछ रंगीन पत्रिकाएँ भी रखी गयीं। ग्राहक उसमें बैठकर उस्ताद जी के खाली होने की प्रतीक्षा करते। केबिन भरा रहता और लोग उस्ताद जी को पूछते रहते। पर अब उस्ताद जी ने सैलून पर जाना कम कर दिया था।. |
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जैसे ही उसने रेडियो का स्विच दबाया, उसका पसंदीदा गाना बजा। मलेशिया के रेडियो स्टेशन में हिंदी गाने का बजना और वह भी आपके फेवरेट गाने के सुरों का असर बिल्कुल तपती गर्मी में रिमझिम बरसात की तरह होता है। रिमझिम के तराने लेके आई बरसात... और सचमुच खिड़की पर बारिश की एक बौछार ने दस्तक दे दी।. |
196 |
"रूपया क्या संग ले जाओगे बिटवा, एक तो औलाद है उसकी मन की करने से पहले भी इतना हिसाब करते हो, आखिर खरीदे ही काहे थे ई सब ताम झाम जब बिटिया पहन कर अपना सौक पूरा ही न कर सके तो।" अब कोई विकल्प न था स्वाती के पास, उसने स्टोर रूम से एक और सूटकेस निकला और कीर्ति मैडम के सारे चनिया चोली पैक कर दिये।. |
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खैर समय जल्दी ही बीत गया और त्योहारों के मौसम ने फिर से दस्तक दे दी। स्वाती नवरात्रि की पूजा घर पर भी करती थी इसलिए वो कुआलालंपुर में ही बसे लिटिल इंडिया नाम की एक जगह पर अपनी सहेली के साथ चली गई। सुना था कि यहाँ पूजा का सभी सामान मिल जाता है। और जैसा सुना था उससे भी ज्यादा देखने को मिला।. |
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स्वाती का इतना ही कहना था की रजनी ने बतया की जब माँ दुर्गा तुम्हारी सुन सकती है तो अपनी छोटी सी बिटिया की क्यों नहीं सुनेगी। यहाँ पुडु सेंट्रल में लक्ष्मी नारायण मंदिर है। वह ९ दिन नवरात्रि का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाया जाता हैं। गरबा तो पूछ मत कैसा होता है। तू हैरान हो जायेगी लोगों का जोश देखकर।. |
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और वहाँ की रौनक देखकर तो दंग ही रह गया। संगमरमर से बना विशाल मंदिर बेहद छोटे हजारों बल्बों की रोशनी में झिलमिला रहा था। इतनी चमक थी के मानो दीवाली की रात हो। मंदिर के प्रांगण में बल्ब की लड़ियों के नीचे रेशमी तोरण झूल रहे थे। उनके बीच बीच में कपड़े से बने हुए बड़े बड़े कंदील अपनी शोभा बिखेर रहे थे।. |
200 |
बाहर खान पान का पूरा बंदोबस्त था। जहाँ भारतीय भोजन की व्यवस्था थी। यहाँ बहुत से भारतीय परिवार मिले। और ऐसा लगा कि कुछ दोस्तियाँ आगे तक भी साथ रहेंगी। पंडित जी ने बताया कि राम नवमी को एक भारतीय परिवार ने मंदिर में ही महाजागरण का आयोजन भी किया है जिसमें सभी भारतीय आमंत्रित हैं।. |
201 |
कुछ लोग अभी तक मंदिर के प्रांगण में अपनी अपनी मस्ती में झूम रहे थे। लेकिन अधिकतर लोग वापसी की मुद्रा लेने लगे थे। तभी एक ओर पुरस्कारों की घोषणा होने लगी। सबसे अच्छा नृत्य करने वाले, सबसे अच्छा गाने वाले, और अनेक प्रकार के पुरस्कार प्राप्त करने वालों के नाम पुकारे जा रहे थे।. |
202 |
नदी के किनारे, लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे डोलता-सा चला आ रहा था। धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भाँति उसका सिर भी घुटा हुआ है। पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश। सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के पेड़ों की कतारें।. |
203 |
प्राचीनकाल में इसी भाँति देश-विदेश से आनेवाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लाँघ कर भारत में आया करते होंगे। अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुँधलके में मुझे वाङ्चू भी चलता हुआ नजर आया। जब से वह श्रीनगर में आया था, बौद्ध विहारों के खंडहरों और संग्रहालयों में घूम रहा था।. |
204 |
जब से श्रीनगर में आया था, बर्फ के ढके पहाड़ों की चोटियों की ओर देखते हुए अक्सर मुझसे कहता - वह रास्ता ल्हासा को जाता है ना, उसी रास्ते बौद्ध ग्रंथ तिब्बत में भेजे गए थे। वह उस पर्वतमाला को भी पुण्य-पावन मानता था क्योंकि उस पर बिछी पगडंडियों के रास्ते बौद्ध भिक्षु तिब्बत की ओर गए थे।. |
205 |
उन दिनों मेरे और मेरे दोस्तों के बीच घंटों बहसें चला करतीं, कभी देश की राजनीति के बारे में, कभी धर्म मे बारे में, लेकिन वाङ्चू इनमें कभी भाग नहीं लेता था। वह सारा वक्त धीमे-धीमे मुस्कराता रहता और कमरे के एक कोने में दुबक कर बैठा रहता। उन दिनों देश में वलवलों का सैलाब-सा उठ रहा था।. |
206 |
क्रियात्मक स्तर पर तो हम लोग कुछ करते-कराते नहीं थे, लेकिन भावनात्मक स्तर पर उसके साथ बहुत कुछ जुड़े हुए थे। इस पर वाङ्चू की तटस्थता कभी हमें अखरने लगाती, तो कभी अचम्भे में डाल देती। वह हमारे देश की ही गतिविधि के बारे में नहीं, अपने देश की गतिविधि में भी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं लेता था।. |
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कुछ मास पहले यहाँ गोली चली थी। कश्मीर के लोग महाराजा के खिलाफ उठ खड़े हुए थे और अब कुछ दिनों से शहर में एक नई उत्तेजना पाई जाती थी। नेहरू जी श्रीनगर आनेवाले थे और उनका स्वागत करने के लिए नगर को दुल्हन की तरह सजाया जा रहा था। आज ही दोपहर को नेहरू जी श्रीनगर पहुँच रहे हैं।. |
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लेकिन फिर स्वयं ही कुछ सोच कर उसने अपने आग्रह को दोहराया नहीं और हम घर की ओर साथ-साथ जाने लगे। कुछ देर बाद हब्बाकदल के पुल के निकट लाखों की भीड़ में हम लोग खड़े थे - मैं, वाङ्चू तथा मेरे दो-तीन मित्र। चारों ओर जहाँ तक नजर जाती, लोग ही लोग थे - मकानों की छतों पर, पुल पर, नदी के ढलवाँ किनारों पर।. |
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नेहरू जी की नाव दूर जा चुकी थी लेकिन नावों का जुलूस अभी भी चलता जा रहा था, जब वाङ्चू सहसा मुझसे बोला, 'मैं थोड़ी देर के लिए संग्रहालय में जाना चाहूँगा। इधर से रास्ता जाता है, मैं स्वयं चला जाऊँगा।' और वह बिना कुछ कहे, एक बार अधमिची आँखों से मुस्काया और हल्के से हाथ हिला कर मुड़ गया।. |
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'पसंद क्यों न होगा! यहाँ थोडे़ में गुजर हो जाती है, सारा वक्त धूप खिली रहती है, फिर बाहर के आदमी को लोग परेशान नहीं करते, जहाँ बैठा वहीं बैठा रहने देते हैं। इस पर उन्हें तुम जैसे झुड्डू भी मिल जाते हैं जो उनका गुणगान करते रहते हैं और उनकी आवभगत करते रहते हैं। तुम्हारा वाङ्चू भी यहीं पर मरेगा...।. |
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वाङ्चू ने जरूर ही उसकी ठिठोली से समझ लिया होगा। उसके मन को जरूर ठेस लगी होगी। पर मेरे मन में यह विचार भी उठा कि एक तरह से यह अच्छा ही है कि नीलम के प्रति उसकी भावना बदले, वरना उसे ही सबसे अधिक परेशानी होगी। शायद वाङ्चू अपनी स्थिति को जानते-समझते हुए भी एक स्वाभाविक आकर्षण की चपेट में आ गया था।. |
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भावुक व्यक्ति का अपने पर कोई काबू नहीं होता। वह पछाड़ खा कर गिरता है, तभी अपनी भूल को समझ पाता है। सप्ताह के अंतिम दिनों में वह रोज कोई-न-कोई उपहार ले कर आने लगा। एक बार मेरे लिए भी एक चोगा ले आया और बच्चों की तरह जिद करने लगा कि मैं और वह अपना-अपना चोगा पहन कर एक साथ घूमने जाएँ।. |
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बरस और साल बीतते गए। हमारे देश में उन दिनों बहुत कुछ घट रहा था। आए दिन सत्यग्रह होते, बंगाल में दुर्भिक्ष फूटा, 'भारत छोड़ो' का आंदोलन हुआ, सड़कों पर गोलियाँ चलीं, बंबई में नाविकों का विद्रोह हुआ, देश में खूरेजी हुई, फिर देश का बँटवारा हुआ, और सारा वक्त वाङ्चू सारनाथ में ही बना रहा।. |
214 |
इसके बाद मेरी मुलाकात वाङ्चू से दिल्ली में हुई। यह उन दिनों की बात है, जब चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई भारत-यात्रा पर आनेवाले थे। वाङ्चू अचानक सड़क पर मुझे मिल गया और मैं उसे अपने घर ले आया। मुझे अच्छा लगा कि चीन के प्रधानमंत्री के आगमन पर वह सारनाथ से दिल्ली चला आया है।. |
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पर जब उसने मुझे बताया कि वह अपने अनुदान के सिलसिले में आया है और यहीं पहुँचने पर उसे चाऊ-एन-लाई के आगमन की सूचना मिली है, तो मुझे उसकी मनोवृत्ति पर अचंभा हुआ। उसका स्वभाव वैसा-का-वैसा ही था। पहले की ही तरह हौले-हौले अपनी डेढ़ दाँत की मुस्कान मुस्कराता रहा। वैसा ही निश्चेष्ट, असंपृक्त।. |
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बोधिसत्त्वों के पैरों पर अपने प्राण निछावर नहीं करता फिरता था। लेकिन अपने जीवन से संतुष्ट था। पहले की ही भाँति थोड़ा खाता, थोड़ा पढ़ता, थोड़ा भ्रमण करता और थोड़ा सोता था। और दूर लड़कपन से झुटपुटे में किसी भावावेश में चुने गए अपने जीवन-पथ पर कछुए की चाल मजे से चलता आ रहा था।. |
217 |
मैं जानता था कि एक भाई को छोड़ कर चीन में उसका कोई नहीं है। १९२९ में वहाँ पर कोई राजनीतिक उथल-पुथल हुई थी, उसमें उसका गाँव जला डाला गया था और सब सगे-संबंधी मर गए थे या भाग गए थे। ले-दे कर एक भाई बचा था और वह पेकिंग के निकट किसी गाँव में रहता था। बरसों से वाङ्चू का संपर्क उसके साथ टूट चूका था।. |
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'सुनो वाङ्चू, भारत और चीन के बीच बंद दरवाजे अब खुल रहे हैं। अब दोनों देशों के बीच संपर्क स्थापित हो रहे हैं और इसका बड़ा महत्व है। अध्ययन का जो काम तुम अभी तक अलग-थलग करते रहे हो, वही अब तुम अपने देश के मान्य प्रतिनिधि के रूप में कर सकते हो। तुम्हारी सरकार तुम्हारे अनुदान का प्रबंध करेगी।. |
219 |
उसने बताया कि कुछ ही दिनों पहले अनुदान की रकम लेने जब वह बनारस गया, तो सड़कों पर राह चलते लोग उससे गले मिल रहे थे। मैंने उसे मशविरा दिया कि कुछ समय के लिए जरूर अपने देश लौट जाए और वहाँ होने वाले विराट परिवर्तनों को देखे और समझे कि सारनाथ में अलग-थलग बैठे रहने से उसे कुछ लाभ नहीं होगा, आदि-आदि।. |
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वह सुनता रहा, सिर हिलाता और मुस्कराता रहा, लेकिन मुझे कुछ मालूम नहीं हो पाया कि उस पर कोई असर हुआ है या नहीं। लगभग छह महीने बाद उसका पत्र आया कि वह चीन जा रहा है। मुझे बड़ा संतोष हुआ। अपने देश में जाएगा तो धोबी के कुत्तेवाली उसकी स्थिति खत्म होगी, कहीं का हो कर तो रहेगा।. |
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उसके जीवन में नई स्फूर्ति आएगी। उसने लिखा कि वह अपना एक ट्रंक सारनाथ में छोड़े जा रहा है जिसमें उसकी कुछ किताबें और शोध के कागज आदि रखे हैं, कि बरसों तक भारत में रह चुकने के बाद वह अपने को भारत का ही निवासी मानता है, कि वह शीघ्र ही लौट आएगा और फिर अपना अध्ययन-कार्य करने लगेगा।. |
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लोग काम करने जाते, तो टोलियाँ बना कर, गाते हुए, लाल ध्वज हाथ में उठाए हुए। वाङ्चू सड़क के किनारे खड़ा उन्हें देखता रह जाता। अपने संकोची स्वभाव के कारण वह टोलियों के साथ गाते हुए जा तो नहीं सकता था, लेकिन उन्हें जाते देख कर हैरान-सा खड़ा रहता, मानों किसी दूसरी दूनिया में पहुँच गया हो।. |
223 |
वाङ्चू ने बचपन में जमींदार का बड़ा घर देखा था, उसकी रंगीन खिड़कियाँ उसे अभी भी याद भी। दो-एक बार जमींदार की बग्घी को भी कस्बे की सड़कों पर जाते देखा था। अब वह घर ग्राम प्रशासन केंद्र बना हुआ था और भी बहुत कुछ बदला था। पर यहाँ पर भी उसके लिए वैसी ही स्थिति थी जैसी भारत में रही थी।. |
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दूसरों का उत्साह उसके दिल पर से फिसल-फिसल जाता था। वह यहाँ भी दर्शक ही बना घूमता था। शुरू-शुरू के दिनों में उसकी आवभगत भी हुई। उसके पुराने अध्यापक की पहलकदमी पर उसे स्कूल में आमंत्रित किया गया। भारत-चीन सांस्कृतिक संबंधों की महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में उसे सम्मानित भी किया गया।. |
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लोगों ने तरह-तरह के सवाल पूछे, रीति-रिवाज के बारे में, तीर्थों, मेलों-पर्वों के बारे में, वाङ्चू केवल उन्हीं प्रश्नों का संतोषप्रद उत्तर दे पाता जिनके बारे में वह अपने अनुभव के आधार पर कुछ जानता था। लेकिन बहुत कुछ ऐसा था जिसके बारे में भारत में रहते हुए भी वह कुछ नहीं जानता था।. |
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उसके गाँव में भी लोग लोहा इकट्ठा कर रहे थे। एक दिन सुबह उसे भी रद्दी लोहा बटोरने के लिए एक टोली के साथ भेज दिया गया था। दिन-भर वह लोगों के साथ रहा था। एक नया उत्साह चारों ओर व्याप रहा था। एक-एक लोहे का टुकड़ा लोग बड़े गर्व से दिखा-दिखा कर ला रहे थे और साझे ढेर पर डाल रहे थे।. |
227 |
एक रोज एक आदमी नीले रंग का कोट और नीले ही रंग की पतलून पहने उसके पास आया और उसे अपने साथ ग्राम प्रशासन केंद्र में लिवा ले गया। रास्ते भर वह आदमी चुप बना रहा। केंद्र में पहुँचने पर उसने पाया कि एक बड़े-से कमरे में पाँच व्यक्तियों का एक दल मेज के पीछे बैठा उसकी राह देख रहा है।. |
228 |
जब वाङ्चू पार्टी-दफ्तर से लौटा तो थका हुआ था। उसका सिर भन्ना रहा था। अपने देश में उसका दिल जम नहीं पाया था। आज वह और भी ज्यादा उखड़ा-उखड़ा महसूस कर रहा था। छप्पर के नीचे लेटा तो उसे सहसा ही भारत की याद सताने लगी। उसे सारनाथ की अपनी कोठरी याद आई जिसमें दिन-भर बैठा पोथी बाँचा करता था।. |
229 |
एक बार वाङ्चू बीमार पड़ गया था तो दूसरे रोज कैंटीन का रसोईया अपने-आप उसकी कोठरी में चला आया था - 'मैं भी कहूँ, चीनी बाबू चाय पीने नहीं आए, दो दिन हो गए! पहले आते थे, तो दर्शन हो जाते थे। हमें खबर की होती भगवान, तो हम डाक्टर बाबू को बुला लाते... मैं भी कहूँ, बात क्या है।. |
230 |
वह जल में से बाहर फेंकी हुई मछली की तरह तड़पने लगा। सारनाथ के विहार में सवाल-जवाब नहीं होते थे। जहाँ पड़े रहो, पड़े रहो। रहने के लिए कोठरी और भोजन का प्रबंध विहार की ओर से था। यहाँ पर नई दृष्टि से धर्मग्रंथों को पढ़ने और समझने के लिए उसमें धैर्य नहीं था, जिज्ञासा भी नहीं थी।. |
231 |
इस बैठक के बाद वह फिर से सकुचाने-सिमटने लगा था। कहीं-कहीं पर उसे भारत सरकार-विरोधी वाक्य सुनने को मिलते। सहसा वाङ्चू बेहद अकेला महसूस करने लगा और उसे लगा कि जिंदा रह पाने के लिए उसे अपने लड़कपन के उस 'दिवा-स्वप्न' में फिर से लौट जाना होगा, जब वह बौद्ध भिक्षु बन कर भारत में विचरने की कल्पना करता था।. |
232 |
उसने सहसा भारत लौटने की ठान ली। लौटना आसान नहीं था। भारतीय दूतावास से तो वीजा मिलने में कठिनाई नहीं हुई, लेकिन चीन की सरकार ने बहुत-से ऐतराज उठाए। वाङ्चू की नागरिकता का सवाल था, और अनेक सवाल थे। पर भारत और चीन के संबंध अभी तक बहुत बिगड़े नहीं थे, इसलिए अंत में वाङ्चू को भारत लौटने की इजाजत मिल गई।. |
233 |
भारत में पुलिस-अधिकारियों के सामने खड़े होने का उसका पहला अनुभव था। उससे जामिनी के लिए पूछा गया, तो उसने प्रोफेसर तान-शान का नाम लिया, फिर गुरूदेव का, पर दोनों मर चुके थे। उसने सारनाथ की संस्था के मंत्री का नाम लिया, शांतिनिकेतन के पुराने दो-एक सहयोगियों के नाम लिए, जो उसे याद थे।. |
234 |
'आपकी ट्रंक, चीनी बाबू, हमारे पास रखी है। मंत्रीजी से हमने ले ली। आपकी कोठरी में एक दूसरे सज्जन रहने आए, तो हमने कहा कोई चिंता नहीं, यह ट्रंक हमारे पास रख जाइए, और चीनी बाबू, आप अपना लोटा बाहर ही भूल गए थे। हमने मंत्रीजी से कहा, यह लोटा चीनी बाबू का है, हम जानते हैं, हमारे पास छोड़ जाइए।. |
235 |
डगमगाती जीवन-नौका फिर से स्थिर गति से चलने लगी है। मंत्रीजी भी स्नेह से मिले। पुरानी जान-पहचान के आदमी थे। उन्होंने एक कोठरी भी खोल कर दे दी, परंतु अनुदान के बारे में कहा कि उसके लिए फिर से कोशिश करनी होगी। वाङ्चू ने फिर से कोठरी के बीचोंबीच चटाई बिछा ली, खिड़की के बाहर वही दृश्य फिर से उभर आया।. |
236 |
पर लौटने के दसेक दिन बाद वाङ्चू एक दिन प्रातः चटाई पर बैठा एक ग्रंथ पढ़ रहा था और बार-बार पुलक रहा था, जब उसकी किताब पर किसी का साया पड़ा। उसने नजर उठा कर देखा, तो पुलिस का थानेदार खड़ा था, हाथ में एक पर्चा उठाए हुए। वाङ्चू को बनारस के बड़े पुलिस स्टेशन में बुलाया गया था।. |
237 |
दो दिनों तक दोनों चीनियों को पुलिस स्टेशन की एक कोठरी में रखा गया। दोनों के बीच किसी बात में भी समानता नहीं थी। जूते बनानेवाला चीनी सारा वक्त सिगरेट फूँकता रहता और घुटनों पर कोहनियाँ टिकाए बड़बड़ाता रहता, जबकि वाङ्चू उद्भ्रांत और निढाल-सा दीवार के साथ पीठ लगाए बैठा शून्य में देखता रहता।. |
238 |
पाँचवें दिन लड़ाई बंद हो गई, लेकिन वाङ्चू के सारनाथ लौटने की इजाजत एक महीने के बाद मिली। चलते समय जब उसे उसका ट्रंक दिया गया और उसने उसे खोल कर देखा, तो सकते में आ गया। उसके कागज उसमें नहीं थे, जिस पर वह बरसों से अपनी टिप्पणियाँ और लेखादि लिखता रहा था और जो एक तरह से उसके सर्वस्व थे।. |
239 |
वाङ्चू अपनी कोठरी में लौट आया। अपने कागजों के बिना वह अधमरा-सा हो रहा था। न पढ़ने में मन लगता, न कागजों पर नए उद्धरण उतारने में। और फिर उस पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी थी। खिड़की से थोड़ा हट कर नीम के पेड़ के नीचे एक आदमी रोज बैठा नजर आने लगा। डंडा हाथ में लिए वह कभी एक करवट बैठता, कभी दूसरी करवट।. |
240 |
सारा ब्यौरा देने के बाद उसने लिखा कि बौद्ध विहार का मंत्री बदल गया है और नए मंत्री को चीन से नफरत है और वाङ्चू को डर है कि अनुदान मिलना बंद हो जाएगा। दूसरे, कि मैं जैसे भी हो उसके कागजों को बचा लूँ। जैसे भी बन पड़े, उन्हें पुलिस के हाथों से निकलवा कर सारनाथ में उसके पास भिजवा दूँ।. |
241 |
अनुदान की रकम अभी भी चालीस रुपए ही थी, लेकिन उसे पूर्व सूचना दे दी गई थी कि साल खत्म होने पर उस पर फिर से विचार किया जाएगा कि वह मिलती रहेगी या बंद कर दी जाएगी। लगभग साल-भर बाद वाङ्चू को एक पुर्जा मिला कि तुम्हारे कागज वापस किए जा सकते हैं, कि तुम पुलिस स्टेशन आ कर उन्हें ले जा सकते हो।. |
242 |
लेकिन उसके हाथ एक-तिहाई कागज लगे। पोटली अभी भी अधखुली थी। वाङ्चू को पहले तो यकीन नहीं आया, फिर उसका चेहरा जर्द पड़ गया और हाथ-पैर काँपने लगे। इस पर थानेदार रुखाई के साथ बोला, 'हम कुछ नहीं जानते! इन्हें उठाओ और यहाँ से ले जाओ वरना इधर लिख दो कि हम लेने से इनकार करते हैं।. |
243 |
उम्र के इस हिस्से में पहुँचकर इंसान बुरी खबरें सुनने का आदी हो जाता है और वे दिल पर गहरा आघात नहीं करतीं। मैं फौरन सारनाथ नहीं जा पाया, जाने में कोई तुक भी नहीं थी, क्योंकि वहाँ वाङ्चू का कौन बैठा था, जिसके सामने अफसोस करता, वहाँ तो केवल ट्रंक ही रखा था। पर कुछ दिनों बाद मौका मिलने पर मैं गया।. |
244 |
मंत्रीजी ने वाङ्चू के प्रति सद्भावना के शब्द कहे - 'बड़ा नेकदिल आदमी था, सच्चे अर्थों में बौद्ध भिक्षु था,' आदि-आदि। मेरे दस्तखत ले कर उन्होंने ट्रंक में वाङ्चू के कपड़े थे, वह फटा-पुराना चोगा था, जो नीलम ने उसे उपहारस्वरूप दिया था। तीन-चार किताबें थीं, पाली की और संस्कृत की।. |
245 |
मिल्क पाउडर कॉफी पाउच। सत्तू चने और बिस्किट। एक सत्यकथा लेखक, जो इत्तेफाक से इंटेलीजेन्स ब्यूरो का अदना सेवक भी था किंतु जाहिरा तौर पर पुरातत्व खोजी शोधार्थी था, काले को विभाग से मेरे साथ आने के आदेश मिले थे सुरक्षा के लिये। लेकिन मुझे खोजनी थीं परतें रहस्यमय मौतों के सिलसिले की।. |
246 |
टेबल पर अब भी आधा खाली बैग पाईपर सोडा-मिक्स रखा था लेकिन मैं होश में रहना चाहता था। सिगरेट ऐश ट्रे में बुझाकर मैं कोट डालकर बाहर आ गया। लॉन में चाँद चमक रहा था। बाउण्ड्री के दूसरे छोर पर दो कमरों में से खर्राटों की आवाजें आ रही थीं। तभी लालटेन लाठी टॉर्च लिये चौकीदार कमरे से निकला।. |
247 |
पक्के कमरे छोटे के थे कच्चे कमरों में बूढ़े माता पिता शिफ्ट हो गये और दो आधे कच्चे आधे पक्के यानी फर्श पर गोबर दीवारें सीमेन्टेड कमरे रैम्जे भाई ग्रेसिया और ग्रेगरी को मिल गये। मुआवजे की रक़म से तड़ातड़ कलर टीवी फ्रिज कूलर गैस स्टोव और एक सेकेण्ड हैण्ड मारुति वैन खरीद ली।. |
248 |
बच्चे कम थे और ज्यादातर पैदल ही मीलों दौड़कर जाने वाले देसी छोकरे। खरचा कैसे निकले। ब्यूटी पार्लर और रेडीमेड बेकरी फूड की आदत कम की गयी मगर बात नहीं बनी। मुंबई रिटर्न बाबू को खासी प्रसिद्धि और स्वीकृति मिल गयी थी रहन सहन और शक्ल सूरत से फॉरेन रिटर्न लगते तीनों। हर कोई बात करने को उतावला रहता।. |
249 |
वहाँ से कुछ मील दूर एक हवेली थी "नवरतन पैलेस" वीरान इस हवेली में कोई नहीं रहता था। हवेली भुतही विख्यात हो चुकी थी। किसी समय शान-शौक़त वैभव का नायाब नमूना रही होगी। रैम्जे भाई बीबी को कस्बा घुमाते घुमाते जब वहाँ से निकले तो ग्रेसिया ने पेशकश कर दी हवेली को पट्टे पर लेकर स्कूल खोलने की।. |
250 |
दो चार दिन में ही उन्होंने हवेली के वारिस और स्वामियों का पता लगा लिया। पता चला कि मालिकों का परिवार तो खत्म हो गया जड़ मूल सहित लेकिन मरने से पहले हवेली पुजारी को गिरवी रखी थी फिर कई हाथों से गुजरता हुआ बैनामा वर्तमान में एक पंडा जी के कब्जे में है। उन्होंने इसमें किरायेदार भऱ दिये थे।. |
251 |
दूसरे ही दिन दो दरजन स्थानीय बच्चों ने नाम कटवा लिया। लेकिन ग्रेसिया रैम्जे भाई ग्रैगरी के साथ वैन से गाँव गाँव प्रचार को गये आसपास के पचास किलोमीटर व्यास का दायरा उनके प्रभाव में आ गया, स्कूल चल पड़ा। नारियल तोड़ फीता काट तहसीलदार साब उद्घाटन कर गये। कुछ रिक्शे लग गये।. |
252 |
हवेली के चालीस में से सिर्फ बीस कमरे ही खोले गये थे। बाकी दस में सारा कबाड़ औऱ फर्नीचर भरा था। शेष दस कमरों का एक पोर्शन जहाँ हमेशा ताले पड़े रहते कोई वहाँ जाता ही नहीं। ग्रेसिया को एक दिन लगा कि हवेली में बॉयज हॉस्टल चलाया जा सकता है। तो उसने कबाड़ वाले कमरे खुलवा डाले।. |
253 |
वहाँ कोई था ही नहीं। जरूर कोई लड़का भाग के किसी पेड़ के पीछे छिप गया होगा। बात आई गई हो गयी। छोटे के मन में खटका लग गया। उसने दो चार दिन में प्रस्ताव रख दिया कि भैया पूरा ही स्कूल तुम्हारा मेरी तो लागत और मेहनत का पैसा दे तो पास के कस्बे में किताबों की दुकान खोल कर एक टैक्सीकार भी डाल दूँ।. |
254 |
वह चकित रह गयी। सारे कमरे एक पृथक मकान नुमा पोर्शन बनाते थे जिसके आँगनमें पाँच कमरे नीचे फिर तीन ऊपर फिर दो कमरे सबसे ऊपर की मंजिल पर थे। पूरी हवेली इस तरह चार सर्वथा पृथक आँगनों से जुड़े विशाल आँगन में मिलती थी जो एक स्थानीय चौक चितेउरकी रंगोली का डिजायन होता था। जिसे सुराँती कहते हैं।. |
255 |
सबमें पलंग सोफे टेबल औऱ फानूस लगे हुये थे। कीमती कालीन दीपाधार फायरप्लेस तक सही सलामत थे। कमरों में अजीब सी खुशबू फैली थी। ग्रेसिया पागलों की तरह नाच सी उठी। भागी भागी रैम्जे भाई को पकड़ कर ले आयी। एक पलंग से दूसरे पर लोटती वह रानियों महारानियों की तरह अकड़ कर चलने का अभ्यास करने लगती कभी हँस पड़ती।. |
256 |
सारे सपने यूँ पूरे हो जायेंगे कभी सोचा भी नहीं था। ग्रेसिया ने उस रात वहीं सबसे ऊपर वाले सबसे आलीशान कमरे में सोने का फैसला किया। रैम्जे का डर निकल चुका था। एक खंड में चालीस लड़के दस कमरों में रहने लगे थे। आधी राज के बाद जब सारा कस्बा सन्नाटे में डूबा था तेज चीख सुनाई दी।. |
257 |
उनका बच्चा ग्रैगरी लड़कों के साथ ही हॉस्टल में पढ़ाई करने सोता था। पुलिस सुबह तड़के ही आयी और साफ सफाई की गयी। ग्रेसिया और रैम्जे दोनों को दूसरे शिक्षक अस्पताल ले गये। और लौटकर बताया कि ग्रैसिया हृदय और पैरालायसिस अटैक से मर गयी। रैम्जे ने उस रात जमकर शराब पी थी कि वह बेसुध था।. |
258 |
लड़के दहशत में एक एक करके हॉस्टल छोड़ते चले गये और मजबूर रैम्जे बेटे के साथ हवेली में अकेला रह जाता हर रात क्योंकि घर का हिस्सा वह छोटे को बेच चुका था। हवेली के अंदरूनी दसों कमरों में फिर से ताले डाल दिये गये थे। दो साल तक कोई अनहोनी नहीं हुयी। लोग उस रात को हादसा समझ कर भूलने लगे।. |
259 |
लड़की अनाथ थी और ग्रैसिया से ज्यादा महत्वाकांक्षी। उसने स्कूल में तरह तरह के प्रशिक्षण शुरू कर दिये। एक दिन स्कूल का एक लड़का गाँव जाकर पेट दर्द से मर गया जो बेहद मेधावी लड़का था। छह महीने बाद ही रैम्जे की माँ और दो चाचा एक मामा मर गये ग्रैगरी की नानी एक मौसा का भी देहांत हो गया।. |
260 |
रैम्जे की नई बीबी एक दिन सीढ़ियों से गिरी और टाँग तुड़ा बैठी। छोटे का बेटा छत से गिरा और मरते मरते बचा। ये उस दिन हुआ जब वह ताई के कहने पर हवेली दावत खाकर लौटा। आखिर कार रैम्जे के वृद्ध पिता ने अपना हिस्सा और छोटे से खरीदकर दो कमरे रैम्जे को देकर नई बहू को वापस मकान में बुला लिया।. |
261 |
सब कहते हैं जिसने भी हवेली हथियाकर उस पर राज करने की सोची या वहाँ की कोई भी चीज चुराकर लाया मर गया या बर्बाद हो गया। अब हवेली में ताला पड़ा है और रैम्जे ने शहर के स्कूल में नौकरी कर ली। ग्रैगरी एक आवारा बदमाश लड़का बनकर घूमता रहता है। नई बीबी अब रात दिन कलह करती और बीमार रहती है।. |
262 |
शेर सिंह परंपरानुसार हमें पहले पिछले हिस्से में बने कालीमंदिर ले गया जहाँ नटराज की एक अद्वितीय ताम्र प्रतिमा थी और दूसरे कक्ष में दसभुजा काली की। मंदिर के तीसरे कक्ष में बहुत छोटी मूर्ति महारास करते कृष्ण की थी। मुझे जाने क्यों "नरतन महल "याद आ गया। मंदिर का हर कक्ष मैं देखना चाहता था।. |
263 |
सारे कमरे निवास करने लायक थे और लगता था पुजारी, यात्री, साधु कभी यहीं रहते होंगे। अजीब बात थी कि हर मंदिर का शिखर कलश गायब था। पूछने पर शेर सिंह ने बताया कि छोटे राजा अरिदमन के निसंतान मरने के बाद उनके गोद लिये लड़के ने सारे कलश उतरवाकर बेचकर खा उड़ा डाले जो कभी अष्टधातु के थे।. |
264 |
मैंने कल्पना की, महल की खिड़की में राजा अरिदमन बैठे हैं और सुंदर स्त्री यहाँ चबूतरे पर नृत्य कर रही है हॉल में सफेद गद्दों पर साज बज रहे हैं। दस फीट ऊँचे चबूतरे से नीचे प्रजा खड़ी है और जय जयकार हो रही है। सब प्रसाद लेकर जा रहे है तभी कोण भवन से मोतियों की माला गिरती है सीधी नर्तन करती स्त्री पर।. |
265 |
आप तो अंतर्यामी हैं। मेरे दादाजी ने मुझे बचपन में लगभग ऐसा ही हूबहू वर्णन बताया था हवेली के मँझले राजा का। जो अपनी स्टेट छोड़कर यहाँ इतनी दूर आ बसे थे। पिता से नाराज होकर, जबकि छोटे को सेनापति और बड़े को राजा बनाकर मँझले को ये सिर्फ एक सौ एक गाँव जागीर में दिये जाकर दरबार में कोई पद नहीं मिला।. |
266 |
जहाँ जहाँ दुर्घटनायें हुई थीं। लंच के समय जब हम सब डाक बँगले पर पहुँचे पुजारी हाजिर था। सारे उपलब्ध दस्तावेज़ों सहित। महल के एक के बाद एक यह पाँचवा मालिक था। जिसे रैम्जे ने पाँच साल किश्तें दी थीं और अब किराया काटकर वापस माँग रहा था। पुजारी पर मुकदमा करने की धमकी दे रहा था।. |
267 |
क्योंकि हम लोग सफेद और रंगीन कपड़ों में थे। शाम सात बजे हम लोग राजपुरोहित के आलीशान खंडहर होते जा रहे मकान के एक दुरुस्त कमरे में बैठे चाय पी रहे थे। पीले कपड़ों में जर्जर वृद्ध की कहानियों और दिखायी गयी कुछ चिट्ठियों तस्वीरों और राजपत्रों से पता चला, कहानी एक घिसी पिटी राजकथा थी।. |
268 |
पिता को उनमें वीरोचित गुणों का अभाव भले ही दिखता रहा किंतु वे शस्त्र और शास्त्र दोनों में निपुण थे। निसंतान होने की वजह से एक के बाद एक तीन विवाह किये और जब प्रौढ़ हुये तो युवती रानी के गरीब भाई की सात में से एक संतान को गोद ले लिया। ये बात गुप्त रखी गयी किंतु खुल ही गयी।. |
269 |
राजा हर उपाय करते उनके दिल बहलाने का लेकिन रानी के मन की आग दबाने से और प्रबल होती जाती अंततः इस दुर्व्यवहार का कारण खोजने पर राजा ने एक दूती को लगाया। और शीघ्र ही पता चला कि रानी का अचानक समय मंदिर में बढ़ गया है आने जाने का। युवा राजपुरोहित ने जब से पिता की गद्दी सँभाली है मंदिर में रौनक होने लगी।. |
270 |
राजनर्तकी महल में आने लगी। जो परंपरा के खिलाफ था हतहृदया रानी राजा के भी प्रेम और शैया से वंचित रहने लगी। राजनर्तकी पर मोती न्यौछावर। जब मैं डाक बँगले पर लौटा तो दिमाग में छोटी रानी राजपुरोहित आनंद राजा रिपुदमन और राजनर्तकी रतन की प्रेम कथा त्रासदी और बेबसी की कथा किसी चलचित्र सी दौड़ रही थी।. |
271 |
छोटी रानी को न तो राजा अरिदमन का प्यार मिला न राजपुरोहित आनंद का। बड़ी के विवाह के पाँच साल बाद मँझली आयी थीं और दस साल बाद छोटी। इसलिये सारा महल बड़ी रानी का वफादार था। महल को चार लंबी दालानें चारों कोने पर बने दस दस कमरों के पृथक भवनों से जोड़ती थी वरना सब खंड अलग ही थे।. |
272 |
राजा चिंता में जिस संतान को तरसते उम्र गुजर गयी वह मिली भी तो किसकी कोख से! ना स्वीकारते बनता ना ही दुत्कारते। अंत में गुप्त रूप से एक बुजुर्ग पुरोहित को बुलवाया गया, कहने लगा कि ये पुत्र है। और जन्म ले लिया तो सम्राट हो जायेगा। किंतु इस पर कालसर्प योग है जो मृत्यु योग बना रहा है।. |
273 |
रानी ज़िद मान बैठी नर्तकी को हटाने की हठ ठान ली। नवल केवल ज्ञानी का कर्त्तव्य उठा रहा था। रानी के आदेश पर नवल को गिरफ्तार कर लिया गया। ज़ुर्म राजमहिषी के खजाने पर बुरी नज़र। नवल असफल प्रेम के इस प्रतिशोध पर ठठाकर हँसा। कैदखाने में पड़ी नवलबाई। राजभवन में आने से निषिद्ध रतनदेवी।. |
274 |
वह सिर्फ बंजर जमीन सी जलती रहती। राजा कभी कभार उसके रूप यौवन पर तरस खाकर आ जाते और एक लंबे अरसे को फिर रतनदेवी की ओढ़नी में जा छिपते। सारे महल में रतनदेवी के चित्र सजने लगे। राजा महान कलाकार थे रतन देवी अब सिर्फ राजा के लिये नाचती अंतःपुर में। ठीक समय पर पुत्र का जन्म हुआ।. |
275 |
लेकिन ये क्या! ये नवलबाई का स्त्रीवेश तो नीचे कालीन पर पड़ा है। और एक पुरूष रतनदेवी के साथ सो रहा है लिपटकर दोनों निर्वस्त्र! राजा ने तलवार निकाली औऱ दोनों का सिर धड़ से अलग करने चल पड़े। तभी पुरूष की नींद खुली। ओह, ये तो राजपुरोहित आनंद है। इतना बड़ा धोखा। दोनों ने पैर पकड़ लिये।. |
276 |
न ही कोई इस सच को जानकर आनंद को नगर में रहने देता न मुझे मंदिर में। राजगुरू को तो नर्तकी की छाया से भी पाप लगता है। तब तक आप हम पर रीझ गये। हमने लाख वास्ता दिया आप नहीं माने मनमानी की। राजभय ने हमें विवश किया कि आप ही से विवाह करलें ताकि हमारा पुत्र राजकुमार कहलाये "भांड" नहीं।. |
277 |
आपका मान सम्मान आतंक रुतबा कितना ही महान हो भय से रानी चुप रह सकती है नर्तकी नहीं। आप एक पुरुष वेश्या से ज्यादा कुछ नहीं। मात्र वासना के खिलौने। न स्त्री से प्रेम किया न संतान दी। पौरुष के कई अर्थ होते हैं राजा सिर्फ स्त्री पर पाशविक विजय मात्र नहीं। हृदय भी जीतना पड़ता है।. |
278 |
हम कोई सती और पतिव्रता नहीं नर्तकी हैं। जो एक की हो तो भी लांछित अनेक की हो तो भी कलंकिनी। जब आपने लोकभय से विवाह की रस्म नहीं की। पुत्र चाहा ताकि आप छोटी रानी का बेटा कहकर वारिस भी पा जायें और बदनामी भी न हो। मैंने सोचा था तब तक रानी बनी रहूँ। किंतु नर्तकी तो हूँ कोई राजकुमारी नहीं।. |
279 |
बड़ी रानी ने गयंद को सत्ता सौंपकर वैराग ले लिया। और गंगा में एक दिन तीर्थस्नान में बह गयीं। गयंद अफीम के नशे में बिगड़ता गया। और महाजनों साहूकारों दरबारियों के हाथों लुटने लगा। रतनदेवी को जो धन राजा ने दिया जिस दिन सब बिक गया, गयंद की पत्नी ने क्लेश में शंखिया पीसकर खा लिया औऱ मर गयी।. |
280 |
तीन बेटियों और एक पुत्र को गयंद के ससुर लिवा ले गये जो साथ में बचा कीमती सामान भी ले गये थे लड़कियों की आम परिवारों में शादी कर दी। लड़के को साँप ने डँस लिया। एक दिन गयंद नशे में जुऐ में सबकुछ हार गया तो हवेली पुजारी को बेचकर अपने और पिता के गाँव जा बसा। वहाँ से भी भाईयों से धन लेकर कहीं चला गया।. |
281 |
तब से कोई नहीं जानता। वह कहाँ है। हवेली तबसे लगातार किसी न किसी की मौत से बदनाम होती गयी बिकती गयी। सुना है गयंद कहीं ज्यादा अफीम खाकर मर गया। मुझे अलग अलग नगरों के खास तीन आदमियों का पता चला जो कई बार फोटोग्राफी और पुरातत्व के नाम पर आये थे। गयंद की तीनों बेटियों के पति।. |
282 |
मैंने केस के सारे पहलू देखे मुझे कहीं से कोई लॉजिक नहीं समझ में आ रहा था। आत्महत्याओं का। अगले दिन मैंने फाईनल रिपोर्ट लगा दी कि महज इत्तेफाक है जो किसी की मौत का तार हवेली से जोड़ दिया गया। शाम का अखबार महाराणा प्रताप नगर के अपने फ्लैट में पढ़ रहा था कि चौंक पड़ा। मैंने काले को तुरंत फोन लगाया।. |
283 |
आखिरी प्रयास के तौर पर मैंने स्थानीय पुलिस द्वारा निकाली गयी कार देखने का फ़ैसला किया। उसमें गयंद के चारों भाई परिवार सहित मृत पाये गये थे। दस व्यक्ति के बैठने लायक वह एक मँहगी कार थी जिसे खरीदना उन किसानों के बूते के बाहर की चीज थी। मैं लौटना ही चाहता था कि मुझे कुछ दिखा।. |
284 |
कार बंद थी और कोई सामान नदी में बहा नहीं था। फिर आधी माला कहाँ गयी। लाल चंदन की वह माला मेरे दिमाग में ठक ठक कर रही थी। तभी काले ने कहा। "यार बनर्जी! मुझे लगता है मैंने माला कहीं देखी है।" "कहाँ काले, याद करो।" "किसी के हाथ में।" मैंने एक एक करके सबके नाम लिये जिनसे हम दोनों पिछले सप्ताह मिले थे।. |
285 |
उस ज़माने में बाल विवाह होते थे। आनंद मेरे पिता थे। मेरी माँ से सात वर्ष की आयु में विवाह और बारह वर्ष का गौना होकर सोलह वर्ष की आयु में मेरा जन्म हुआ था। तभी माँ को पता चला पिताजी के संबंधों का और बीस वर्ष की आयु में उन्होंने विष खाकर प्राण त्याग दिये। मुझे दादी ने पाला।. |
286 |
जिसे जन्म के समय चंदन माला पिता ने पहनायी थी। नर्तकी रात के अँधेरे में ज़ान बचाने तालाब में कूदी तो तैरकर दूसरे छोर पर जा पहुँची। वहाँ बच्चे को घाट पर रख ही रही थी कि फिसल कर वापस जा डूबी। कुछ चोरों ने बच्चे के जेवर उतारे और जाकर जंगल में साधुओं के टोले को आता देख बच्चा छोड़कर जा छिपे।. |
287 |
जिसने भी कुछ देख लिया या शक किया उसे भी फाँसी से या धकेल कर मार देता। किरायेदार की बीबी प्रसाद में मिले स्लो पॉयजन से मरी तो लड़कों को खुद घरवालों ने मरवा दिया। जब महंत को भूत भगाने का उपाय करवाने बुलवाया, वह आराम से बाहर आकर कहता द्वार पर रखवाली करना और रात में जाकर बेहोश व्यक्ति को लटका देता।. |
288 |
शादी के पहले से हम दोनों एक-दूसरे को प्रेम कर रहे हैं। अपने-अपने माँ-बाप की मर्जी पर शादी करते समय हमने तय किया था कि एक-दूसरे को भुला देंगे और अपनी-अपनी नयी जिंदगी के साँचे में खुद को ढाल लेंगे। मगर यह मुमकिन न हुआ। नियति और परिस्थिति ने हमारे बीच दूरी बनने ही नहीं दी।. |
289 |
मैं तुमसे माफी नहीं माँग रही, जो चाहे तुम सजा दो, क्यों और कैसे हुआ यह सब, सफाई के कोई शब्द नहीं हैं मेरे पास, लेकिन यह हकीकत है कि मैं बेअख्तियार होती रही। तुम इतने भोले और शरीफ रहे कि मैं आराम से तुम्हारी आँखों में धूल झोंकती रही। तुम धूल खाकर भी आजिज न हुए मगर हम धूल झोंककर भी परेशान-हैरान रहे।. |
290 |
अब वह जिस मुकाम पर है वहाँ से कुछ भी नया शुरू करने का न तो उसमें उत्साह था, न रुचि। कायदे से उसे घृणा हो जानी चाहिए थी उस औरत से। मगर वह खुद में झाँककर देखता था तो घृणा का एक तिनका भी उगा हुआ कहीं नहीं दिखता था। जिसे उसने एक लंबे अर्से तक प्यार किया, दिल की गहराइयों से चाहा, उससे घृणा कैसे कर ले।. |
291 |
आमिष चला गया, महज दस घर का ही तो फासला था। आशा के विपरीत वहाँ चहल-पहल की जगह एक ऊँघता हुआ मौन पसरा था। उसे हैरत हुई। कॉलबेल बजायी तो भूमिका ने दरवाजा खोला। पराये घर में एक परायी औरत की तरह दरवाजा खोलते देख उसे बेहद अटपटा लगा। अब यही सत्य था, न वह अब उसकी गृहिणी थी और न वह उसका घरवाला था।. |
292 |
मिनटों वे एक-दूसरे से सटे इसी तरह स्पर्श-उष्मा लेकर एक असाधारण संवाद करते रहे। सुमित और भूमिका देख रहे थे दोनों का मिलना। बिना कुछ कहे निपुण की आँखें जार-जार बहने लगी थीं, आमिष भी खुद को रोक न सका और उसके भी आँसू थामे थम न सके। अन्तर्संबंधों की यह कैसी विरल अभिव्यक्ति थी।. |
293 |
निपुण उसका इंतजार करता होता और उसे देखते ही मानों उसकी रंगत आद्योपांत बदल जाती। भूमिका के प्रति उसकी नाराजगी धीरे धीरे खत्म सी होती चली गयी। खुलकर बात तो नहीं कर पाता था लेकिन भंगिमा में किसी नुकीलेपन या वक्रता का इजहार नहीं रह गया था। अब ऐसा जाहिर होता था कि इस परिस्थिति को उसने स्वीकार कर लिया।. |
294 |
बरामदे में बैठकर सुमित और भूमिका उन्हें देख रहे थे। भूमिका ने सुमित को हार दिखाकर चौंका दिया। उसके खोने और मिलने की पूरी उपकथा बतायी तो आमिष जैसे एक तेज खुशबू की तरह उस पर पूरी तरह छा गया। उसकी जगह वह होता तो इस तरफ नजर उठाकर नहीं देखता, हार लौटाने का तो सवाल ही नहीं था।. |
295 |
उसका सिर चकरा गया। कौन बच्चा किसका जना है, यह तो उसकी माँ के सिवा शायद ईश्वर भी नहीं जानता होगा। खासकर तब जब एक ही साथ किसी औरत का दो मर्द के साथ संबंध चल रहा हो। दस्तूर है कि औरत जिसे अपने बच्चे का पिता बता देती है, दुनिया उसे ही मान्यता दे देती है, वह मर्द भी मान लेता है।. |
296 |
आमिष ने वहाँ अभिनय करने में कोई कमी नहीं की और अपने चरित्र की हद का पूरा खयाल रखा। वे एक कमरे में रहे लेकिन एक दूरी बनाये हुए एकदम विरक्त-पृथक। भूमिका उसके इस व्यवहार से जैसे पानी-पानी होती गयी। चाहता तो यह आदमी अपनी मनमानी चलाने के लिए उसे मजबूर कर देता और अपने अभिनय की कीमत वसूल लेता।. |
297 |
मगर उसे तो अभिनय करना था, अपने परिवार की नजरों में भूमिका नेक बनी रहे, इसका आधार तैयार करने में मदद कर देनी थी। अब उसे इनकी निगाह में अपनी छवि की परवाह करने की कोई तुक नहीं थी, चूँकि भूमिका से उसका कोई रिश्ता ही नहीं रहना था, इसलिए दोबारा यहाँ आने का भी कोई सवाल नहीं था।. |
298 |
बहरहाल, अगर यह सच है तो चलो हम इसे नजरअंदाज कर देते हैं यह मानकर कि आदमी की मति-गति एक समान नहीं रहती। लेकिन आइंदा हमें ऐसी कोई शिकायत न मिले इसका खयाल रहे। आमिष, तुम जानते हो कि भूमिका मेरी लाडली बेटी है और उसे हम किसी भी हाल में दुखी नहीं देख सकते। हम चाहते हैं कि तुम दोनों ही खूब सुखी रहो।. |
299 |
सवारियाँ उतर गईं। उसके हाथ में पाँच रुपये थे। अब वह कुछ तो खा ही सकता था। पास के ही होटल से उसने दो रोटियाँ लीं और फ्री चालू दाल। काँटे होते गले से पहला निवाला बिन चबाए निगलना चाहा। उसका मन कडुआ गया। अगर परसों वह निहाल से जुए में सब पैसे न हार गया होता तो उसकी इतनी खस्ता हालत कदापि न होती।. |
300 |
माँ ज्यादा दिन अकेली न रह सकी। पास की चाल वाला किसोरी काका मानो बाप के जाने का इंतजार कर रहा था। अब वह अक्सर रात में आ जाता। वह भी बाप की तरह शराब पीता था, पर माँ के लिए बाप जैसा निष्ठुर नहीं था। अब माँ की सिसकियाँ नहीं, बल्कि रात के सन्नाटे में उसकी फुसफुसाहटें और किसोरी के ठहाके गूँजा करते थे।. |
301 |
जूही, वैशाली, संध्या...। संध्या तीसरे नंबर की थी। वह प्लाजमा शू में काम करती थी। ढलाई किए हुए रबर सोलों के किनारे फैले अतिरिक्त रबर को काटती थी। उसके शरीर से भी रबर की गंध आती। साँवली दुबली-पतली संध्या उसे अच्छी लगती थी। उसने सोचा था, जब उसके पास पैसा होगा, वह उसके साथ शादी करेगा।. |
302 |
रंजन को याद है, होश सँभालने के बाद दो-एक वसंत-पर्व दृष्टि-पथ से गुजर चुके थे। मग्न बाल मंडली-हर्षित, उल्लासित और पूर्ण! हालाँकि अभाव भी कम नहीं था। लेकिन, इसके बावजूद हर्ष और उल्लास में कोई कमी नहीं थी। तब भी उसने माँ से पिचकारी की माँग की थी, अन्य बच्चों के हाथ में पिचकारी देखकर।. |
303 |
मौसी का तंबाकू लाने के लिए पुचकारती जाती। वह मारे क्रोध के भर उठता था। कितना अच्छा खेल रहा था! और इतने अच्छे खेल में यह तंबाकू घुस आया! दूर हटिया बाजार के हुक्का वाले का ही तंबाकू मौसी को पसंद है; मसालेदार-खुशबूदार तंबाकू! नजदीक के बिरंची साव का तंबाकू बेस्वाद गोबर जैसा लगता है मौसी को।. |
304 |
प्रतिमा ने कॉलेज में उसके बारे में 'गोपियों बीच कन्हैया' 'अवारा बादल' जैसी कुछ आधी-अधूरी बातें सुन रखी थीं। लेकिन वह प्रतिमा की बहुत इज्जत करता था और कभी उसके सामने उसने न कोई गलत बात की, न ही कोई नाजायज हरकत अतः प्रतिमा ने वार्डन की बात अनसुनी कर चर्चा का विषय ही बदल दिया था।. |
305 |
प्रायः सभी चैनल मौत की पुष्टि कर रहे थे। 'स्थानीय लोगों ने संरक्षणगृह से युवती को बलात उठा ले जाने की दुर्घटना के पीछे विधायक वीरवर्धन का हाथ होने की पुष्टि की है। विधायक ने उस संरक्षणगृह में पाँच छह वर्ष बिताए थे और इमारत का पूरा नक्शा एवं उस जगह का चप्पा-चप्पा उनका जाना-पहचाना था।. |
306 |
पिछले तीन वर्षों से उस गली के लोगों में पाई जाने वाली भ्रातृत्व, संतोष, तृप्ति, विद्वेष, मुसीबतें और निराशा जैसी भावनाओं से वह परिचित है। धनी लोगों की उस गली में न जाने कितने लोगों से वह मिला है, कितनी कहानियाँ उनके बारे में उसने सुनी हैं। उस दिन उस गली से आलस्य की छाया छूट नहीं रही थी।. |
307 |
मनुष्य के दिमाग की फितरत भी तो बहुत अजीब है जहाँ जाने को जी नहीं चाहता, मस्तिष्क है कि बार-बार घसीटकर उधर ही ले जाता है। शांति भी सो गयी, उस अतीत में जिसने उसकी जिंदगी की दिशा ही बदल दी थी। शांति की बचपन से ही ख्वाहिश थी कि वह अपना एक सुंदर-सा, प्यारा-सा घर जरूर बनाएगी।. |
308 |
मन के अंतर में छिपी हुई इच्छा और भी बलवती होती गयी। लेकिन ससुराल के भरे-पूरे घर में से अलग घर बनाने को पैसे नहीं जुटा सकी। अंतर में छिपी भावना जीवन की अन्य समस्याओं की पूर्ति के सामने राख में छिपे अंगारे की तरह हो गयी, जो कभी-कभी हवा पाकर अपना प्रभाव दिखाए बगैर नहीं रहता था।. |
309 |
इतने मच्छर कि सोना तो क्या बैठना भी दुश्वार हो गया। एक दिन तपती दुपहरी में शांति देवी गर्मी से बेहाल हुई जा रही थीं। दोनों बेटे-बहू अपने कमरों में कूलर लगाये सो रहे थे और वह अपने घर में, जिसे उन्होंने पति के नाम पर नहीं अपने नाम पर बनवाया था, असहाय-सी बैठी थी। यकायक मन में पता नहीं क्या आया।. |
310 |
एक आत्मविश्वास जागा। जीवन के अर्थ बदल गये। यहाँ सबका प्यार मिलता है। वह सबसे बेहद प्यार करती है। सब उसे अम्मा कहकर बुलाते हैं। वह सबका सहारा है। सबकी सेवा ही उसका धर्म है। दुःखी-हताश चेहरों पर आयी मुस्कराहट ही परम आनंद है। सेवा से मिली आत्मिक शांति ही उसकी अपार संपत्ति है।. |
311 |
दोनों बेटों ने प्रतिष्ठित कॉलेजों से इंजीनियरिंग कर ली और बहुत ऊँची पगार वाली नौकरी भी ज्वाइन कर ली। उसकी अपनी तनख्वाह ४० हजार के आसपास पहुँच गयी। काफी पहले शहर के एक कोने में अपना घर बना लिया। अब कोई निजी जिम्मेवारी बची नहीं रह गयी। उसकी अपनी जरूरतें भी बहुत सीमित थीं।. |
312 |
आदमी अपना दुर्दिन कितनी जल्दी भूल जाता है। गाँव से आयी यह औरत शुरुआती दिनों में सार्वजनिक नल से पानी ढोती रही, लाइन में लगकर फारिग होती रही, कोयले के चूल्हे पर खाना बनाती रही, एक कमरे के किराये वाले घर में दिन गुजारती रही। आज उसे कंपनी का यह ठीक-ठाक सा फ्लैट खराब लग रहा है।. |
313 |
इनकी रायशुमारी या सर्वे किसी संस्था या सरकारी मशीनरी ने करने की जरूरत नहीं समझी होगी। मुदित बहुत पहले से रोज सोचता आ रहा था कि अपनी अच्छी तनख्वाह से कुछ पैसे इनके लिए भी निकालने चाहिए, लेकिन बस सोचकर ही रह जाता। शायद ही वह महीने में पच्चीस-तीस रुपया भीख में दे पाता होगा।. |
314 |
आज तक आप या मम्मी ने हवाई जहाज पर पाँव तक नहीं रखे, ट्रेनों में प्रथम श्रेणी की यात्रा नहीं की। मेरी इच्छा है कि मैं आपलोगों को अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड आदि खूबसूरत देशों की यात्रा पर ले जाऊँ। पुणे, दिल्ली, मुंबई, बंगलोर आदि महानगरों में हमारे फ्लैट हों।. |
315 |
सत्तर हजार में चालीस हजार स्थायी कर्मचारियों की जबरन स्वैच्छिक अवकाश देकर छँटनी। उनकी जगह दर्जनों ठेकेदारों का निबंधन और फिर इनकी मार्फत असंगठित श्रेणी के चालीस-पचास हजार सिखुआ-नवसिखुआ मजदूरों का प्रवेश। इनमें से बहुतों को कोई साप्ताहिक अवकाश नहीं, खासकर सिक्युरिटी गार्ड का काम करने वालों को।. |
316 |
काम के नाम पर सिर्फ ढोंग, दिखावा, खानापूरी, स्थानीय असंतोष, नाराजगी व क्षोभ की आग पर पानी डालते रहने का पाखंड। समाज सेवा के भारी-भरकम कागजी दिखावे पर आयकर में भारी छूट तथा यूनेस्को, यूनीसेफ और यूएनओ से मोटी-मोटी अनुदान राशि की खेपें। कितनी राशि आयी और कहाँ लगी, जनता को इसका कोई इल्म नहीं।. |
317 |
अब तो सरकारी प्रतिष्ठानों का भी यही हाल। वहाँ भी छंटनी और आउटसोर्सिंग का खेल जारी। लेकिन गाज सिर्फ मजदूरों पर। अधिकारियों की ऊँची तनख्वाह पर कोई संकट नहीं। तीन हजार-चार हजार रुपये के मासिक वेतन में पारा शिक्षक बहाल। जबकि स्थायी शिक्षकों की तनख्वाह बीस हजार से लेकर चालीस-पचास हजार तक।. |
318 |
आपने एक टीवी खरीद लिया और उसे तब तक चलाते रहेंगे जब तक वह पूरी तरह बेकार न हो जाये। यही शर्त कार, फ्रीज, ओवन, मोबाइल, फर्नीचर, वाशिंग मशीन आदि के लिए भी लागू है। लेकिन वे पचास-साठ लाख में कार खरीदेंगे और तीसरे साल में बदल डालेंगे। एक लाख में टीवी खरीदेंगे और ढाई-तीन साल में दूसरा मॉडल ले लेंगे।. |
319 |
मेरे स्मृति-पटल पर आज भी बचपन की धुँधली-सी यादें अंकित हैं। मैं जब पहली बार दत्तक पुत्र के रूप में अपने अमेरिकी माता-पिता के साथ अमेरिका आया था, तब मेरी उम्र यही कोई चार वर्ष की रही होगी। मुझे अच्छी तरह से याद है, मुझसे कुछ छोटा, मेरा एक भाई भी था, जो सदैव मेरी भारतीय माँ की गोद में चिपका रहता था।. |
320 |
वह कोई होटल रहा होगा। वहाँ पर मेरे पिता एक गोरे दम्पति से मिले। गोरी महिला ने मुझे मेरे पिता की गोद से ले लिया। उनमें आपस में कुछ देर तक बातचीत होती रही। मुझे वह गोरे दम्पति जरा भी अच्छे नहीं लग रहे थे। मैं अपने पिता की गोद में वापस जाना चाहता था। मेरे पिता को उन्होंने एक बैग थमाया था।. |
321 |
तब मैंने सोचा था कि बैग मिठाई व खिलौनों से भरा है। मेरे पिता मेरे पास आए, उनकी आँखें नम थीं। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा। मुझे चूमा और तुरन्त ही कमरे से बाहर निकल गये। उनके जाते ही मैं मचल उठा था और जोर-जोर से चिल्लाते हुए रोने लगा था। वे गोरे दम्पति मुझे तरह-तरह से चुप कराने का प्रयास करते रहे।. |
322 |
मैं अपने डैड और मम को बहुत चाहता हूँ। अपनी मृत्यु के समय डैड मुझसे कुछ कहना चाहते थे, परन्तु वह कुछ नहीं कह सके थे और उन्होंने मम को कुछ संकेत करने के बाद अपनी आँखें सदा के लिए बंद कर ली थीं। उस समय मैं कुछ समझ नहीं पाया था। बाद में मुझे मम ने बताया था कि मेरे डैड मुझसे क्या कहना चाहते थे।. |
323 |
भारतीय संस्कृति के प्रति उनमें घोर आस्था थी। अक्सर हम लोग भारत-भ्रमण के लिए जाया करते थे। जब डॉक्टरों द्वारा यह घोषित कर दिया गया कि हम दोनों निःसन्तान ही रहेंगे, तब मैंने उनसे एक बच्चा गोद लेने का आग्रह किया था। अंततः अपने एक भारतीय मित्र के माध्यम से हम लोगों ने तुम्हें गोद ले लिया था।. |
324 |
उनके बीवी बच्चे ही तैयार नहीं होंगे - "हीट एंड डस्ट" और "इनफेक्शन" भरी इस धरती पर लौटने के लिए। मरा न वह अभी हालीवुड का फिल्म मेकर समरेन्द्र किल्ला उर्फ सैमकी बम्बई में अकेला। परिवार ने कह दिया होगा, तुमको जहाँ जाना हो जाओ, जो करना हो करो, हम तो यूरोप की सीमा से उधर पूरब की तरफ नहीं जाएँगे।. |
325 |
उसके चेहरे पर बराबर ऐसा भाव था जैसे उसे जोर की हाजत हो रही हो और वह टायलेट न जा पा रहा हो। शायद विजय नाम था। माँ कभी कभी उसे विजय जैन के बगल के कमरे में रहनेवाले बालानंद पंडित को किसी चीज का मूहूर्त दिखाने के लिए बुलाने भेज देती, तो वह हमेशा इसी तरह विजय को और उसके भाइयों को उघड़े बदन देखता।. |
326 |
इंडियन आदमी और गाल पर और गाल पर वही काला निशान देखकर जयगोविंद ने विजय जैन को पहचान लिया था। विजय के चेहरे पर निसान देखकर ऐसी खुशी हुई, जिसकी उम्मीद जयगोविंद ने सपने में भी नहीं की थी। वह बड़ी जिद कर उसे अपने घर ले गया था जहाँ उसने अपनी बीबी बच्चों और अपनी बड़ी गाड़ी से उसे मिलाया था।. |
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बस एक पेग लेते ही विजय ढह गया था। "मैं अगले साल सब कुछ सलटाकर इंडिया लौट जाऊँगा" उसने कहा था। "पिछले पंद्रह साल तो मुझे हो गए यह सुनते" - उसकी पत्नी ने कहा था - "ऐसे ही करते रहते हैं। जाने इंडिया में कोई प्राइम मिनिस्टर की पोस्ट इनका इंतजार कर रही है। "मैं अपने देश में मरना चाहता हूँ।. |
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साली यह भी कोई जिंदगी है।" उसकी पत्नी का चेहरा तमतमा गया था। अमेरिका में इंडियन पति-पत्नी लड़ने के लिए उसका लिहाज नहीं करने वाले हैं। जयगोविंद बीच-बचाव करने के लिए कूदा -"क्या यार, तुमने तो अमेरिका में इतना कुछ हासिल किया है। इंजाय करो। वहाँ हमें न लड्डू-पेड़े मिले, न तुम्हें मिलने वाले हैं।. |
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विजय पूरे समय उससे कलकत्ता की अलग अलग एरिया के दाम पर बात करता रहा था। जैसे अगले साल फ्लैट खरीदना तय हो। मजे की बात, एक बार भी उसने जानकीदाश तेजपाल मैनशन का जिक्र नहीं किया था। शायद उसे डर हो कि जयगोविंद उन लोगों के सामने सिर्फ निकर पहनकर घर में रहने की बात उसके बीवी-बच्चे के सामने न बोल पड़े।. |
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कई बार तो उसके लौट आने के बाद एक-दो चिट्ठियाँ पहुँचतीं। यहाँ तक कि एक बार दिल्ली में पढते हुए, रोहित का कॉलेज के दिनों फ्रैक्चर हो गया, तो भी दीपा दिल्ली नहीं जाना चाह रही थी। एडवोकेट बाबू ने भी सोचा था कि दक्षिण दिल्ली में बंगले में रहने वाली लड़की कैसे इस चौक के मकान में रहेगी।. |
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इसे ही प्रेम मान लिया जाता है। इतना जरूर है कि जयगोविंद अपने नाम से जुडे गोविंद यानी कृष्ण की तरह न होकर राम की तरह रहा। कोई भी औरत कितनी भी सुंदरी क्यों न हो, उसे एक क्षण के लिए भी लुभा नहीं पाई। बल्कि कभी किसी की तरफ से जरा सा कहा-अनकहा आमंत्रण महसूस होता, तो जयगोविंद के अंदर जैसे कुछ जम-सा गया।. |
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दीपा जैसी कोई लड़की इंडिया में मिल सकती है और वह भी अपने ही समाज की, यह तो वह सोच भी नहीं सकता था। जानकीदास तेजपाल मैनशन के उस तरफ के चौक में रहनेवाला उसके बचपन का दोस्त विलास उसे बरसों से अपनी दिग्विजय की कहानियाँ सुनाता रहा है। पर जयगोविंद ने उसकी सब बातों को सिर्फ दिलचस्पी से सुना है।. |
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पत्नी की मौत क्या हुई, अब जयगोविंद दुनिया की नजर में "छुट्टा साँड" हो गया। जयगोविंद को लोगों के सोचने का ढर्रा और उसको इजहार करने की भाषा का पूरा ज्ञान है। उसे मालूम है कि बिनब्याहे या तलाकशुदा आदमियों कि तरह उसे भी बेचारगी के साथ देखा जाने लगा है जो बड़े शहरों में सडकों पर घूमते गाय-बैल होते हैं।. |
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अमेरिका की साफ-सुथरी दुनिया में न सड़कों पर गायें गोबर करती हैं और न साँड मदहोश होकर दौड़ लगाते हैं। रोहित शायद उसके अकेले होने की तकलीफ को उस तरह समझ भी नहीं पाता, क्योंकि अमेरिका में तो हर उम्र के लोग इलेक्ट्रिक व्हील-चेयर पर या स्कूटर पर शॉपिंग मॉल में जाकर अपनी सारी खरीददारी कर लाते हैं।. |
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ऐसे लगता है जैसे वह उस औरत के पीछे टँगी दीपा की तस्वीर को देख रहा हो। किसी को फोन करने में भी ऐसा लगता जैसे जबरदस्ती किसी के जीवन में घुसपैठ कर रहा हो। किसी का फोन आ जाए तो ऐसा लगता है कि बगल में बैठा उसका पति कहीं आँख न दिखा रहा हो कि इतने घुलने-मिलने की कोई जरूरत नहीं है।. |
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माँ के मुँह से एक शब्द जो उसे बहुत बार सुना हुआ याद है, वह है 'लुगाईघट्टा' यानी स्त्रियों से या अपनी पत्नी से ज्यादा बातें करनेवाला। शायद माँ इसलिए भी हर किसी को लुगाईघट्टा कह डालती थी क्योंकि एडवोकेट बाबू तो स्त्रियों से क्या, किसी पुरुषों से भी ज्यादा बातें नहीं करते थे।. |
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उसे पूरा यकीन है कि माँ उसके पीठ पीछे उसे लुगाईघट्टा जरूर कहती होगी। इस देश की हर माँ शायद बचपन से अपने बेटों को इस शब्द से डराकर रखना चाहती होगी कि कहीं उसके बेटे अपनी पत्नियों के पिछलग्गू न बन जाएँ। माँ के सामने उसने कभी अपने बड़े भाइयों को भाभियों से कुछ कहते या फरमाइश करते नहीं सुना।. |
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जाने कैसे इनलोगों ने यही मान लिया है कि यह एकदम सही तरीका है जीने का कि बातों को छानते रहे! कितने शब्द भाषा में डाल रखे हैं ऐसे लोगों के लिए, जो लकीर को पीटते हुए नहीं चलते हैं। उच्छलघोड़ा - यानी उछलनेवाला घोड़ा। यानी कि वह गया-गुजरा आदमी, जो बेवजह उछलता है और अंत में गिरकर हाथ पैर तोड़ लेता है।. |
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माँ ने कहा था - "एक तो तुम अमेरिका का ठप्पा लगवा आए हो, ऐसे ही जल्दी से कोई अपनी लड़की तुम्हें देने वाला नहीं है। ऊपर से उच्छलघोड़ा बने फिरोगे, तो कुँवारे ही डोलना।" अब तो चालीस साल से ऊपर हो गए अमेरिका से लौटे। पर जयगोविंद जानता है कि बहुतों की निगाह में वह हमेशा उच्छलघोड़ा ही रहा।. |
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यह विश्वास बनाए रखा कि वे दोनों अनपढ़-अधपढ़ लोगों की दुनिया से अलग हैं। भले ही छठी क्लास फेल पड़ौसी सौ करोड़ में खेल रहे हों, पर उनके पास ऐसा कुछ नहीं है जो किसी के पास नहीं है। उन लोगों के पास और कुछ खरीदने की ताकत हो न हो, किताबें खरीदने की ताकत जरूर है जो और किसी के पास नहीं।. |
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उफ्! जयगोविंद ने एक लंबी साँस छोड़ी और पीला फोल्डर कार्टन के बगल में पटककर बरामदे में जा खड़ा हुआ। बाहर कुछ भी देखने लायक नहीं था। एक जैसे तीन तल्ले के नए बिना रंग किए माकन-दर-मकान पास खड़े थे। यह बरामदा बनवाया ही किसलिए गया था, कोई पूछे तो! शायद सिर्फ कपड़े सुखाने के लिए।. |
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पर मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि आपकी खुशबू हर पल सारे घर में फैली रहती है। हर कमरे में, तीनों बालकनी में, हर जगह। आपकी खुशबू दुनिया के हर फूल की खुशबू से अलग है बिलकुल आपकी तरह। सारा घर हर पल उससे महकता रहता है। मुझे तो हमेशा यह लगता है कि आप अभी पीछे से आ जाएँगे और मुझे ज़ोर से धप्पा करेंगे।. |
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घर में सबकी सुबहें बहुत उदास हैं बिल्कुल नंगे पेड़ जैसी। पर मैं सुबह आँखें खोलती हूँ तो आप रोज़ की तरह सफ़ेद गुलाब को पानी देते हुए दिखते हैं, स्टडी रूम में जाती हूँ तो आप किताबों पर झुके हुए मिलते हैं, बालकनी में जाती हूँ तो आप कुछ सोचते हुए, चिन्तन-मनन करते हुए धीरे-धीरे चलते हुए दिखते हैं।. |
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सुबह उठते ही मम्मा उस फोटो से आपको निकालकर अपनी आँखों और दिल में बसा लेती हैं फिर सारा दिन आप उनके साथ ही बने रहते हैं पूरी सचेतता और आश्वस्ति के साथ। प्रकाश के उस स्रोत की तरह जो सब प्रकाशित करता चला जाता है। वह प्रकाश का ओरा आप ही तो होते हैं जिसे मम्मा हर पल धारण किए रहती हैं।. |
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अपने आपको शेर की पत्नी दिखाती हैं पर मन में अन्दर ही अन्दर रोती हैं। कभी-कभी उनकी आँखें बहुत रोती हैं बिना आँसू बहाए। मैंने कई बार महसूस किया है। मन के अन्दर सिसकियों की आवाज़ मैंने सुनी है। जब मम्मा रात को मुझसे लिपट कर सोती हैं तो कई बार मैं मम्मा के अन्दर सिसकियों की आवाज़ सुन लेती हूँ।. |
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सुबह से ही गाँव के गरीब किसान उनसे कुछ न कुछ सलाह लेने आने लगते हैं और बाहर के कमरे में दद्दू उन सब के दुःख दर्द सुनते भी हैं और हर सम्भव मदद भी करते हैं। उस समय दद्दू दद्दू नहीं रहते आप हो जाते हैं। दद्दू भी आपकी तरह सबको कहते हैं बच्चों को पढ़ाना ज़रूर किसी भी कीमत पर।. |
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आप दद्दू की वाणी में विराजमान थे। दद्दू कह रहे थे हमें न्याय की माँग करनी है अन्याय का विरोध। कल दद्दू किसानों को कह रहे थे आपके ख़ून की एक-एक बूँद एक-एक ईमानदार आई.ए.एस. पैदा करेगी। जहाँ-जहाँ आपके ख़ून की बूँदें गिरेंगी वहीं-वहीं से ईमानदार लोग पैदा होंगे और आपकी लड़ाई को आगे बढ़ाएँगे।. |
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कल दादी ने गाँव की औरतों को सम्बोधित किया। आज सब औरतें शांति मार्च करेंगी। दादी कह रही थी मेरा बेटा शेर था। वो जब दहाड़ता था तो भ्रष्ट शासन तंत्र काँपने लगता था और मैं भी शेरनी हूँ। शेर को जन्म देने वाली शेरनी। हमें चुप नहीं रहना। पप्पा, उस समय दादी की आँखों में आप दिखाई दे रहे थे।. |
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माँ और दादी ने जाने से मना कर दिया पर मैं गई थी। वहाँ आप फोटो के फ्रेम के पीछे से हमें देख रहे थे। आपकी मुस्कराहट मुझे फिर आश्वस्त कर गई कि आप हमारे पास ही हैं। वहाँ आपकी ईमानदारी और बहादुरी की बहुत प्रशंसा की गई। वहाँ वो सब किसान मौजूद थे जिनकी ज़मीन बचाने के लिए आप सरकार से जूझ रहे थे।. |
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वे सब निराश हो रहे थे पर दद्दू ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे और सब ईमानदार लोग अगर इकट्ठे हो जाएँ तो बेईमानी डर कर भाग जाएगी। एक एक दिया जलाकर हम रोशनी का सागर बना सकते हैं। दद्दू ने उन्हें विश्वास दिलाया कि लोग एक जुट हो रहे हैं और आपके अधूरे काम को पूरा होना ही पड़ेगा।. |
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मेरे स्कूल में सबका बिहेवियर मेरे साथ बदल गया है। सब मेरा ध्यान रखने लगे हैं। सब मुझे प्यार करने लगे हैं। प्यार, सहानुभूति, दया...इनमें से कौन क्या दे रहा है मुझे समझ नहीं आता पर जो भी मेरे पास आ रहा होता है उसमें आप होते हैं। मेरा सीट पार्टनर हमेशा मुझे तंग करता था पर अब वह मेरा दोस्त बन गया है।. |
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दद्दू दिन में लोगों को सम्बोधित करते हैं रात को टी.वी. पर आपके लिए उठने वाली हर आवाज़ को अपनी आवाज़ में आकर मिलता हुए महसूस करते हैं। ढेरों हाथ दद्दू के हाथों के साथ हिलने लगे हैं। टी.वी. में लोग आपके साथ दिखते हैं और उन सब लोगों के बीच में आपका मुस्कराता चेहरा झाँक रहा होता है।. |
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इधर कुछ दिनों से कौशल्या बस एक ही शिकायत करती थकती न थी। हर किसी से वही कहानी दुहरायी जाती। पहले तो निजी परिचारिका से कहा- हाय हाय मुझसे नहीं देखा जाता वह आदमी। मेरी टेबल पर ही बिठा दिया है उसको। हर वक्त नाक बहती रहती है, मुँह से लार टपकती रहती है और वह मुँह में खाना डालता रहता है।. |
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कौशल्या ने मुँह बिचका कर कहा तो परिचारिका चुप हो गयी। उसे यूँ भी पता था कि एक बार जो बात शर्मा के दिमाग में आ गयी तो वहाँ से खिसकने नहीं वाली। वह यही सब दुहराती रहेगी। किसी का कोई भी जवाब यों भी उसे संतुष्ट नहीं कर सकता। और यहाँ एक अकेली बुढ़िया तो थी नहीं जिसे बैठकर समझाया जाये।. |
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कहने का मतलब यह कि इन सठियाये नहीं, अठियाये या नव्वाये बिगड़ैल बच्चों को पालना दुनिया के किसी भी काम से शायद ज्यादा माँग करने वाला है। तनख्वाहें अच्छी थीं इसलिये काम करने वाले मिल तो जाते थे पर सभी वहाँ सेवाभाव से प्रेरित होकर काम करने नहीं आते थे, बल्कि कमाई के लिये ही आते थे।. |
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उसमें बदलाव नहीं किया जाता। कौशल्या को यह नियम-टियम बिल्कुल नहीं भाता। वह तो कभी इस तरह बँध कर रही नहीं। आखिर अपने घर में नियम तो वह बनाती थी। पति का बनाया नियम तक तो चलने नहीं दिया था और यहाँ साले चले हैं कौशल्या पर नियम लादने! यों भी पैंतालीस बरस की उमर से तो वह विधवा जीवन जी रही है।. |
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बेचारी करे भी क्या! इसी तरह तो मन लगाना होता। कहाँ जाकर इन अमरीकियों के बीच फँस गयी थी। अब बुढ़ापे में आकर रहन-सहन के नये तौर तरीके सीखना उसके बस की बात नहीं रह गयी थी। खाना भी अमरीकी। भाषा भी अमरीकी। और ये काम करनेवाली कालियाँ (काले रंग की परिचारिकायें) उसे कतई न भातीं।. |
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उस दिन स्वीडिश मीटबाल बने थे पर कौशल्या ने सुना स्वदेशी मीटबाल। और सोचती रही कि यह स्वदेशी मीटबाल भला कौन सा पकवान है। जब प्लेट सामने आयी और पता चला कि ये तो गउमाँस के कोफ्ते बने हैं तो छि छि करके प्लेट सामने से हटवायी। खाली उबली सी सब्जियाँ और नूडल मँगवा कर बड़े बेमन से खायीं।. |
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हाँ कौशल्या यहाँ रहते हुए एक बात बहुत ज्यादा अच्छी तरह से समझने लगी है और वह यह कि अपने मन की इच्छा इन अमरीकियों तक जरूर पहुँचानी है। अगर चुप रहे तो कुछ नहीं होने वाला। चुप रहो तो बस सहते रहो। जो चाहिये, उसके लिये कहना पड़ता है, अपनी आवाज सुनानी होती है और कभी कभार तो लड़ना भी पड़ता है।. |
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पर कौशल्या की याद्दाश्त तो खासी ठीकठाक है। जब अपने साथियों के साथ तंबोला खेल खेलने लगती है तो सबसे ज्यादा जीत भी उसी की होती है। एक खेल प्राईस राइट में भी वह खूब जीतती है। इस खेल में उनको दिलचस्प स्नैक्स, कार्नफ्लेक्स, या ऐसे ही पैकेट्स दिखाये जाते हैं और कहा जाता है कि सही दाम बतायें।. |
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जिसका अंदाजा सबसे सही यानि की असली कीमत के करीब होता है उसको वह पैकेट मिल जाता है। कौशल्या ने ऐसे कितने ही जीते हैं। और तो और वह घुटनों की तकलीफ कम करने के लिये रोज सुबह नाश्ते के बाद कसरत वाले कमरे में जरूर जाती है और वहाँ खड़ी कसरतवाली साईकलों पर टाँगों से ढाई-तीन सौ चक्कर चला लेती है।. |
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तभी तो ८९ साल की उम्र मे भी धीरे धीरे वाकर के सहारे के साथ चल पाती है। यों जब यहाँ आयी थी तो बेहद कमजोर, लगभग मरने-मरने जैसी हालत में हो चली थी। तभी तो बिटिया ने कहा था- ममा वहाँ आपकी देखभाल होगी। मैं काम से कभी कहाँ, कभी कहाँ। बार बार आपको अस्पताल लाना हो नहीं पाता तो आप की ठीक से देखभाल नहीं होती।. |
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यहाँ और सब तरह के सुख तो हैं, हर तरह से देखभाल की जाती है। इसलिये रहना भी यहीं है। वर्ना इस गिरते हए बदन को कौन सँभालेगा। न तो खुद नहा सकती है, न बाल धो सकती है, न कपड़े पहन सकती है। ऊपर से कभी घुटनों और टाँगों में दरद तो कभी पैरों में सूजन। कभी ब्लड प्रेशर हाई तो कभी शूगर हाई।. |
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सोशल वर्कर तो पहले से ही चिढ़ी बैठी थी शर्मा से। जिस किसी के साथ भी बैठती है इसे कोई न कोई शिकायत होने लगती है उससे। कोई आठ-दस साल पहले की बात है पर सोशल वर्कर को अभी भी याद है कि पहले बाब बैठता था तो इसने उसके खिलाफ कहना शुरू कर दिया कि ठरक झाड़ता है। माई गाड शी इज़ ऐटी इयर्स ओल्ड।. |
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अब उमर गुजर गयी, अब क्या छेड़ना! न ही मन में भरोसा उठता था कि इस उमर में भी कोई सच्चा प्यार दे सकता है। यों ही खिलवाड़ के लिये नहीं बनी कौशल्या। ये बाब तो ऊपर ऊपर से ही ठरक झाड़ता है। अगर वह उसेथोड़ी शह दे भी दे तो पता नहीं कब सबके सामने हाथ ही लगाना शुरू कर दे। क्या कहेंगे सब लोग।. |
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कभी लांडरी से किसी का कपड़ा वापिस नहीं आया, तो किसी की दवाई समय पर नहीं पहुँची। हर काम के लिये ये लोग स्टाफ पर आश्रित हैं। यह तो डेढ़ सौ लोगों की गृहस्थी सँभालने जैसी जिम्मेदारी थी। एक अकेले घर की जिम्मेदारी से तो लोगों के नाक में दम आ जाता है, यहाँ ये लोग उससे परफेक्ट सर्विस माँगते हैं।. |
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और अगर शिकायत न हो तो और बड़े बड़े मसले पैदा होते रहते हैं। अकसर कोई बुरी तरह बीमार हो जाता तो डाक्टर या अस्पताल भेजने का इंतजाम करना होता, कभी किसी की हड्डी कड़क जाती तो किसी को हार्ट अटैक, तो किसी की साँस रुक जाती। और इस कौशल्या को तो वैसे ही समझ नहीं पाती थी। इसकी शिकायतें ही निराली होती हैं।. |
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कौशल्या हर बार उसे झाड़- फटकार देती पर उस पर कुछ असर होता न दीखता। ओह तो अभी भी नखरे! ठीक है। यही तो मुझे भी भाता है तुममें। सीधी-सादी लड़कियाँ तो मुझे भी नहीं भातीं। आई लाईक काम्पलीकेटेड विमन। एक दिन कहने लगा-तुम भी अकेली, मै भी अकेला। क्यों नहीं जिंदगी के बचेखुचे दिन मजे से बिताते।. |
369 |
कौशल्या का नाश्ते और लंच का टाईम उससे अलग था सो वास्ता नहीं पड़ता था। पर डिनर की यह दूसरी सिटिंग होती थी और पहले वाली उसके लिये बहुत जल्दी होती थी। उसकी हिंदुस्तानी आदत थी कि खाना जितनी देर में हो सके खाना चाहती थी वर्ना ये लोग तो पाँच बजे से ही रात का खाना खा लेते हैं।. |
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शर्मा ने जब सोशल वर्कर को उसकी शिकायत लगायी तो वह हँसने लगी थी। कि यह भी कोई बात है शिकायत करने की। उसने कौशल्या से कहा था कि वह तो यों ही तुमको काम्पलीमेंट कर रहा होगा। ही इज हार्मलैस। मजाकिया (जोवियल) किस्म का बंदा दीखता है। शर्मा को खुश होना चाहिये कि इस उमर मे भी कोई उसको काम्पलीमेंट करता है।. |
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खैर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में भी कौशल्या अपनी बात तो दूसरे तक पहुँचा ही देती थी। यह और बात है कि उसका कहने का लट्ठमार तरीका अगले को चाहे कितना ही बुरा लगे। कौशल्या शर्मा का गंभीर चेहरा देखकर सोशल वर्कर को भी बात की गहराई समझ आ गयी थी। यह जरूरी नहीं कि सबको ऐसी बातें सही लगें, अनुरंजक लगें।. |
372 |
कई दिन तक कौशल्या उसकी बातें याद भी करती रहती और भुनती रहती। एक दिन परिचारिका ने जब उसे कहा कि अब तो खुश होगी वह कि बाब की मेज बदल गयी तो कौशल्या जैसे अपने आप को ही सचेत होकर कह रही थी-दिस इस नाट राईट। नाट राइट टु टाक लाईक दिस। ही इज ओल्ड मैन। ही इज शेमलैस। आई डोंट लाईक दिस।. |
373 |
और कहते कहते कौशल्या किसी दूसरी दुनिया को जीने लग गयी थी। बरसों पहले की दुनिया। हाँ... उसने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि वह अपनी जिंदगी को नकार रही है। पड़ोसी था वह उसका। मिस्टर कोहली। कोहली साहब कह कर बुलाती थी वह उसे। पति की अचानक दुर्घटना में मौत के बाद कौशल्या की बहुत मदद की थी उन्होंने।. |
374 |
हर तरह के कागजात के काम, इधर उधर दफतरों में ड्राइव करके साथ ले जाना। जब उस बड़े से सरकारी घर से निकलना पड़ा था तो भी उन्होंने हर तरह से साथ दिया, हर तरह का काम करवाया। कौशल्या मन ही मन उनकी बहुत आभारी थी। यह भी सोचती कि उनकी मदद ने उसके वैधव्य को झेलने का काम कितना आसान कर दिया था।. |
375 |
बिटिया ने तो अभी कालेज पूरा ही किया था और आगे की पढ़ाई के लिये अमरीका में कई जगह अर्जियाँ भेज रखी थीं। बिटिया पढ़ने क्या आयी बस यहीं की हो गयी। मिलने तो आती थी, फिर यहीं बुला लिया। पर जितने साल वह अकेली भारत में रही वही उसका सहारा थे। यों कुछेक और सहेलियाँ रिश्तेदार भी थे।. |
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बहुत भले थे, बहुत शिष्टता थी उनके व्यवहार में। आकर्षित तो वे थे कौशल्या के प्रति पर कभी उनके मुख पर कोई अश्लील शब्द नहीं आया। उनके अपनी भी पत्नी और दो बेटे थे। बस एक दिन कुछ ऐसा हुआ था, वे खुद पर काबू न रख पाये और कौशल्या को बाँहों में भर लिया था। पल भर बाद कौशल्या ने छिटका लिया था खुद को।. |
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बस यह ठीक नहीं है, कुछ इस तरह की बात निकली थी उसके मुँह से और प्लीज, आगे से कभी ऐसा मत... कहकर वह अलग हो गयी थी। कौशल्या के भीतर चाहे कितनी भी इच्छा हो, उस इच्छा का स्वीकार उसके संस्कारों में था ही नहीं। शायद इसीलिये कोहली साहब को अपने सवाल का जवाब हमेशा न में ही मिलता।. |
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और इतने साल अमरीका में रहने के बाद भी कौशल्या की भारत से जुड़ी स्मृतियों में सबसे बड़ा क्लोज़-अप इन्हीं सज्जन का था। मन में एक धुँधली सी छवि हमेशा बनी रहती। एक बार जब अपनी छोटी बहन की बेटी की शादी में वह भारत गयी थी तो मन में एक मूल आकर्षण यही था कि वह कोहली साहब को जरूर मिलेगी।. |
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शादी से निबटने के बाद एक दिन उसने लगभग बेशरम होकर(उसकी अपनी नजरों मे) अपनी बहन से कहा था कि वह कोहली साहब से मिलवा दे। भले आदमी का शुक्रिया कर देगी। कमीज लायी थी उनके लिये। बहन ने पता लगा कर कहा कि रिटायर होने के बाद से वे कुछ मील दूर अपनी पत्नी के साथ एक अपार्टमेंट में रहते हैं और काफी बीमार हैं।. |
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उधर कोहली साहब की टाँगों को लकवा मार गया था वे नीचे नहीं आ सकते थे। इतना ही नहीं उनकी याददाश्त भी जा चुकी थी। उनकी पत्नी ने कहा कि वे उनको बालकनी में ले आती हैं, मिसेज शर्मा नीचे से ही बात कर लें। और मिसेज कोहली अपने पति को नीचे गाड़ी में बैठी मिसेज शर्मा को दिखा कर कह रही थीं-ये आयी हैं आपसे मिलने।. |
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बस कौशल्या चली गयी सोशल वर्कर के पास कि मेरे कमरे से तो पैसे चोरी हो गये हैं। चोरी का इलजाम लगाना कौशल्या के लिये तो आसान बात थी। जब भारत में रहती थी तो नौकर-चाकर अकसर चोरी करते ही थे और न भी करें तो जो चीज न मिले, उसका इलजाम कंप्यूटर के आटोमैटिक डीफाल्ट की तरह उन पर लग ही जाता था।. |
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उसके कमरे की रोज सफाई करने परिचारिका आती है तो एक उसे नहलाने आती है। सुबह की परिचारिकायें अलग हैं, शाम की डयूटीवाली अलग। अब वह हमेशा तो कमरे में बैठी नहीं रहती कि कौन कब आता है। वह तो कमरे में ताला भी नहीं लगाती कि कौन चाबी सँभाले और ताला खोले। कब कौन आकर पैसे निकाल ले गया यह वह क्या जाने।. |
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कि काम करने वालों की अपनी कोई डिगनिटी होती है, आत्मसम्मान होता है, कि वे भी एक व्यक्ति ही होते हैं, कि उनके पास भी सही-गलत की नैतिकता होती है। उसके घर के माहौल में नौकर नौकर था, उसमे डिगनिटी जैसी चीज का खयाल सोच के बाहर था, उससे नौकर की ही तरह व्यवहार करना चाहिये। ज्यादा सिर चढ़ाने से बिगड़ते हैं।. |
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और बहुत दिनों बाद अचानक वह पोटली आल्मारी में सूटकेस के पीछे मिल गयी। पता नहीं वहाँ कैसे जाकर गिरी कि कौशल्या को पता ही नहीं लगा। पैसे तो मिल गये पर सोशल वर्कर उससे और भी नाराज हो गयी थी। उसने खुदा का शुक्र किया कि शर्मा के कहने से उसने कोई एक्शन नहीं लिया। वर्ना उसकी खूब भद्द उड़ती।. |
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क्या अब डायरेक्टर से शिकायत करे। पर वह भी कहेगा कि कौन कहाँ बैठता है इसका फैसला सोशल वर्कर करती है। वह इन सब बातों में दखल नहीं देता। तब क्या कर लेगी वह! अगली शाम कौशल्या डिनर के लिये डाईनिंग रूम में गयी ही नहीं। उसने परिचारिका से कहा कि तबीयत कुछ नासाज है सो खाना कमरे में ही ले आये।. |
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मन ही मन कोसती रही सबको। यह कैसी जबरदस्ती है कि मैं उस घिन भरे आदमी की मेज पर बैठूँ। उसे देख कर तो जी में मितली उठती है, भला खाना कैसे खा सकती है वह। हाय भगवान! यहाँ तो कोई सुनता ही नहीं मेरी! किसको सुनाऊँ अपनी मुसीबत! खाने का मजा डाईनिंग रूम में ही आता है। गरमागरम परसती हैं परिचारिकायें।. |
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एक दुपट्टा साथ ले गयी कि इससे नाक और आँख ढक कर बैठेगी। पूरी तरह से तैयारी कर रही थी कि जैसे सचमुच पीप और मवाद के दैव के साथ बैठ कर भोजन करने की तलवार उस पर लटक रही थी। यों यह व्यक्ति बहुत भला सा था। किसी को कुछ कहता नहीं था। अपने में ही रहता। बस उसकी यह दयनीय हालत कौशल्या को असह्य थी।. |
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कोपनहेगन आने के लिए उसे वीजा की आवश्यकता थी। मगर दिल्ली स्थित डेनिश राजदूत कार्यालय ने उसे रेजिडेन्ट परमिट वीजा देने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उनका कहना था कि इन मुल्कों से युवक किसी प्रकार विकसित देशों में घुस जाते हैं और वहीं रह जाते हैं। वहाँ गलत-सलत काम करके अपनी जीविका चलाते हैं।. |
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आध्यात्म के नाम पर जनता को भ्रमित कर रही हैं। बहरहाल सद्भाव को डेनमार्क के लिए रेजिडेन्ट वीजा नहीं मिल पाया। डेनमार्क स्थित इस्कोन अनुयायी अपने पंथ के अस्तित्व को लेकर इस कदर विचलित थे कि उन्होंने सुझाया कि फिलहाल सद्भाव सिर्फ तीन माह के टूरिस्ट वीसा पर ही कोपनहेगन भिजवा दिया जाये।. |
390 |
पाँच अनुयायी मंदिर के परिसर में रह रहे थे। सभी ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। वैसे तो सभी गोरे विदेशी थे मगर मंदिर की धार्मिक कार्यविधियों को निभाने के लिए उन्होंने भारतीय नाम अपना रखे थे। संस्था का प्रधान जयकृष्ण व उप प्रधान दिव्याभ, दोनों डेनिश थे। वैसे तो सद्भाव सभी से मिला।. |
391 |
मंदिर में आध्यात्मिक शांति वाले रोचक कार्यकलाप चलाये। मन के भीतर की दिव्यता को खोलने के रहस्य बताये। डेनमार्क बसे भारतीयों से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित किया। उनके घरों में जाकर वेद व गीता के उपवचन बोले। धर्मतत्वों व योग के सम्मिश्रण का लोगों को अच्छा ज्ञान दिया। पंथ में जान सी आ गई।. |
392 |
सद्भाव मन में कई संदिग्ध सवाल लिये अनमने मन से मान गया। उसका तीन माह का वीजा खत्म हो रहा था जिस वजह से उसे इंडिया हर हाल में लौटना था। संदेश भी उसके साथ जा रहा था। सावन, कृष्ण जन्माष्टमी का समय नजदीक था। संदेश तीन माह मथुरा, वृन्दावन में रह कर आध्यात्मिक साधना में लिप्त होना चाहता था।. |
393 |
कागजी शादी उसके लिए अतिरिक्त आय का एक साधन थी। गरीब मुल्कों से नौकरी की तलाश में भटकते युवकों को वह कागजों में अपना पति बना कर विदेशी भूमि पर व्यवस्थित करने में सहायता करती, और बदले में उनसे धन ऐंठती। एक टर्की युवक को वह कागजी विवाह द्वारा डेनमार्क में व्यवस्थित करवा चुकी थी।. |
394 |
सिलविया ने एक खिलखिलाह के साथ हाथ हिलाते हुए उसे अभिवादन किया, "हरे कृष्णा।" सद्भाव ने स्वयं पर नियंत्रण बनाये रखा। किसी तरह गीता पाठ की व्याख्या भी उसी प्रवाह से जारी रखी। सुस्पष्ट वाणी से नीति वाक्यों की जोरदार व्याख्या करना और उसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद, सिलविया को अत्यधिक प्रभावित कर गया।. |
395 |
वेदों व उपनिषदों का वह ज्ञान अर्जित करने लगी। हिंदी सीखने लगी। कहती कि न जाने क्यों उसे भारतीय संस्कृति, इतिहास, दर्शन आदि में आस्था सी हो रही है। मिलने पर वह सद्भाव से उनकी चर्चा शुरू कर देती। सद्भाव को भी उसके साथ अपने भारतीय आचार-विचार व वेद-पुराण की चर्चा करने में आनन्द आता।. |
396 |
तुमने यहाँ इतने कम समय में डेनिश भाषा भी सीख ली है। तुम्हें यहाँ कहीं भी एक अच्छी नौकरी मिल सकती है। गृहस्थ जीवन भी किसी साधना से कम नहीं। तुम अपने ब्रह्मचर्य के खोल से बाहर आकर जीवन का असली खोल, गृहस्थ जीवन अपना कर तो देखो मेरे साथ। हम दोनों की जिन्दगी बहुत मधुर रहेगी।. |
397 |
फटी-पुरानी चादरों की कथरी सी देती। बाबू दिन भर पेंचकस और तेल की कुप्पी लिए मशीनें ठीक करने में लगे रहते। घर के सब पंखे बेआवाज चलने लगते। दरवाजे चरमराना भूल जाते। ढीले होल्डर और स्विच मुस्तैदी से 'सावधान' की मुद्रा में आ जाते। सिलाई मशीन पिफर 'पानी की तरह' चलने लगती। इतने पर भी चैन कहाँ।. |
398 |
मैकेनिक साहब! ये मिक्सी खराब कर दी आपने। बहू दहेज में लाई थी। लाख कहा त्रिफला मत पीसो! पिसा-पिसाया मिलता है बाजार में! पर नहीं! हम तो हर चीज घर की कुटी-पिसी ही खाते हैं। कर दी न मिक्सी खराब! रहे होंगे अपने जमाने में फस्ट क्लास मैकेनिक। आजकल की नफीस मशीनें आपने देखी ही कहाँ हैं जो ठीक कर दोगे।. |
399 |
चारदीवारी में दरवाजा निकाल दें तो आँगन में भी दो कमरों का मकान बन सकता है। पर बाबू ने साफ मना कर दिया। उन्हें आँगन में खेलते बच्चे अच्छे लगते हैं। सिर्फ उनके घर में आँगन है। इसीलिए शाम को गली भर के सारे बच्चे उनके यहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। उनका मन लगा रहता है। वरना बेटा-बहू तो उनसे बोलते नहीं।. |
400 |
अच्छी मुसीबत है। हर जगह ताला। बस एक ही कसर रह गई है। उन्हें भी ताले में बंद कर जाएँ ये लोग। उनके कमरे में ताला इसलिए नहीं लग सकता कि गुसलखाना वगैरह बरामदे के एक कोने पर है। जब यह मकान बनवाया था, तब हर कमरे के साथ बाथरूम बनवाने का फैशन कहाँ था! विमला ने तो आँगन के एक कोने पर बनवाने को कहा था।. |
401 |
एक दिन सुबह जब बनी अपनी जगह से नहीं हिला तो हम सब हैरान रह गए। इन दिनों उसे चेन से बाँधना बंद कर दिया गया था, फिर भी उसने अपनी जगह से उठने की कोई कोशिश नहीं की। कुछ देर बाद जब बनी अपने अगले दो पैरों पर घिसटता हुआ बाहर जाने लगा तब हमें एहसास हुआ कि असल में बेचारा अपने पिछले पैरों से लाचार हो गया था।. |
402 |
अब घर में मैं, मुनीर और सलोनी तीन ही प्राणी रह गए। सलोनी प्रेगनेंट थी। मैं मन-ही-मन सोचता रहता कि अब सुरभि के बिना बचे दिन मुनीर के बच्चों के साथ खेलते-खाते कट जाएँगे। लेकिन उसके बच्चों के साथ खेलना-खाना मेरे भाग्य में नहीं था। सलोनी बेटी रिया को जन्म देने के बाद एकदम ही बदल गई।. |
403 |
डॉक्टर बहुत अच्छा है, काबिल माना जाता है, सारा स्टॉफ कर्मठ और खुशमिजाज है। पर इस समय उसे झुंझलाहट सी हुई। कोई बात है भला, कमरे में टीवी है पर एक कुर्सी तक नहीं है। हार कर वह बिस्तर पर बैठ गया। उसकी नजर बिस्तर के पास रखी छोटी सी मेज पर गई जिस पर क्लीनेक्स के मैनसाइज टिशूज का डिब्बा रखा था।. |
404 |
लेकिन यह रुपाली के शैंपू की खुशबू नहीं थी। इस खुशबू से उसका रिश्ता बने और टूटे बहुत साल बीत चुके हैं। यह मोगरा के फूलों जैसी भीनी सी खुशबू थी जो शाजिया के बालों से आया करती थी। शाजिया की याद भी अजब है। नहीं आती तो महीनों नहीं आती और फिर सहसा बिना चेतावनी के दुर्घटना की तरह आती है।. |
405 |
दोनों अच्छी नौकरी करते हैं। ऐश करते हैं। साल में दो बार हॉलीडे पर नए-नए मुल्कों की सैर करते हैं- कभी फ्रांस, कभी ग्रीस, कभी टर्की, कभी मोर्रको। वीकेंड ब्रेक्स का तो कोई हिसाब ही नहीं। इंग्लैंड, वेल्स और स्कॉटलैंड का हर खूबसूरत शहर देख चुके हैं। दोस्तों के सर्कल में लोग उनकी जीवन शैली से जलते हैं।. |
406 |
रोज इंजेक्शन लगेंगे, फर्टिलिटी ड्रग्ज दिए जाएँगे अगर उसके हॉर्मोन लेवेल ठीक होंगे और अगर उसकी ओवरीज में अंडे पनपते हैं तब उन्हें निकाला जाएगा, अभिनव के शुक्राणुओं के साथ मिलाकर ट्यूब में फर्टिलाइज किया जाएगा और उसके बाद उनमें से कुछ को वापस रुपाली के गर्भाशय में डाला जाएगा।. |
407 |
हाँ, रुपाली तो किसी भी डगर से गुजरने के लिए तैयार है। अभिनव ने भी इधर आई वी एफ के बारे में अच्छा खासा शोध कर डाला था। वह जानता है आने वाले महीने रुपाली के लिए और एक हद तक उसके लिए भी, मुश्किल होंगे। थकाऊ और उबाऊ भी। फिर भी वह पूरी निष्ठा के साथ रुपाली का साथ देने को तैयार है।. |
408 |
वह चुप रहा। क्या कहे कि पिछले एक लंबे अर्से से रुपाली की माँ बनने की ख्वाहिश, उसकी हताशा, उसका तनाव-सब के सब बिस्तर में आकर उनके बीच लेट जाते हैं, कि रुपाली के लिए अब प्यार और देह सुख गौण हो गए हैं, आवेग और उत्तेजना के बिना संभोग सिर्फ बच्चा बनाने की शारीरिक प्रक्रिया बनकर रह गई है रुपाली के लिए।. |
409 |
उसने हामी भरी। क्यों नहीं, उसने सोचा। लंदन में बाहर खुले में बैठने के दिन ही कितने होते हैं। वे पार्क के एक कोने में आकर बैठ गए। आसमान साफ है और अभी दिन का उजाला बचा हुआ है। रुपाली की नजरें पार्क के दूसरे कोने में बने बच्चों के झूलों की तरफ लगी थीं जहाँ दो बच्चे खेल रहे हैं।. |
410 |
आज सिरचन को मुफ्तखोर, कामचोर या चटोर कह ले कोई। एक समय था, जबकि उसकी मड़ैया के पास बड़े-बड़े बाबू लोगो की सवारियाँ बँधी रहती थीं। उसे लोग पूछते ही नहीं थे, उसकी खुशामद भी करते थे। '...अरे, सिरचन भाई! अब तो तुम्हारे ही हाथ में यह कारीगरी रह गई है सारे इलाके मे। एक दिन भी समय निकाल कर चलो।. |
411 |
एक-एक मोथी और पटेर को हाथ में लेकर बड़े जातां से उसकी कुच्ची बनाता। फिर, कुच्चियों को रँगने से ले कर सुतली सुलझाने में पूरा दिन समाप्त... काम करते समय उसकी तन्मयता में जरा भी बाधा पड़ी कि गेंहुअन साँप की तरह फुफकार उठता - 'फिर किसी दूसरे से करवा लीजिए काम। सिरचन मुँहजोर है, कामचोर नहीं।. |
412 |
सिरचन को लोग चटोर भी समझते हैं... तली-बघारी हुई तरकारी, दही की कढ़ी, मलाई वाला दूध, इन सब का प्रबंध पहले कर लो, तब सिरचन को बुलाओ; दुम हिलाता हुआ हाजिर हो जाएगा। खाने-पीने में चिकनाई की कमी हुई कि काम की सारी चिकनाई खत्म! काम अधूरा रख कर उठ खड़ा होगा - 'आज तो अब अधकपाली दर्द से माथा टनटना रहा है।. |
413 |
मोथी घास और पटरे की रंगीन शीतलपाटी, बाँस की तीलियों की झिलमिलाती चिक, सतरंगे डोर के मोढ़े, भूसी-चुन्नी रखने के लिए मूँज की रस्सी के बड़े-बड़े जाले, हलवाहों के लिए ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी तथा इसी तरह के बहुत-से काम हैं, जिन्हें सिरचन के सिवा गाँव में और कोई नहीं जानता।. |
414 |
सतभैया तारा! सिरचन जब काम में मगन होता है तो उसकी जीभ जरा बाहर निकल आती है, होठ पर। अपने काम में मगन सिरचन को खाने-पीने की सुध नहीं रहती। चिक में सुतली के फंदे डाल कर अपने पास पड़े सूप पर निगाह डाली - चिउरा और गुड़ का एक सूखा ढेला। मैंने लक्ष्य किया, सिरचन की नाक के पास दो रेखाएँ उभर आईं।. |
415 |
बस, सिरचन की उँगलियों में सुतली के फंदे पड़ गए। मानो, कुछ देर तक वह चुपचाप बैठा पान को मुँह में घुलाता रहा। फिर, अचानक उठ कर पिछवाड़े पीक थूक आया। अपनी छुरी, हँसियाँ वगैरह समेट सँभाल कर झोले में रखे। टँगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आँगन के बाहर निकल गया।. |
416 |
सुबह के सवा आठ बजे थे। अविनाश ने अमान्डा के घर फोन करने का निर्णय लिया। अगले दो दिनो में अविनाश ने कुछ खोज कर ली थी। अमान्डा ने डॉक्टरेट केलिफोर्निया से प्राप्त की है। युनिवर्सिटी में अमान्डा अविनाश के जितनी ही सीनियर है और शहर की फोनबुक में सिर्फ एक ही अमान्डा स्मिथ है।. |
417 |
बरसों बाद आज दिले दर्द की दवा करने जा रहा था। याद नहीं कब उसने हाथों में हाथ लिये बगीचे की सैर की। बगीचे की सैर जहाँ हरियाली को हिस्से हिस्से में बाँटती हुई लंबी सी डगर हो, फूलों की महक हो, साथी हो और जहाँ कहे बिना बहुत सा कहा जा रहा हो। आज अविनाश अमान्डा को बगीचे की सैर का न्योता देगा।. |
418 |
दो चार कांवेंट स्कूल थे, जो संभ्रांत परिवारों की तरह अपने में ही रहते। इन में ऐसे बच्चे रहते जिनके माता पिता के पास उन के लिए समय नहीं था। सर्दियों की छुट्टियों में होस्टल भी खाली हो जाते। कभी कोई बदनसीब बच्चा पेरेंट्स की व्यस्तता से स्कूल में रह जाता जो अकेला डोरमेटरी से नीचे झाँकता रहता।. |
419 |
वह अकेला नहीं था। मुझे देखकर उसे शॉक सा लगा था। वह मुझसे बात करना चाहता था इसलिए उसने अपने साथ मौजूद व्यक्ति से माफी माँग ली थी। वह मुझे मैकडॉनोल्ड ले गया था। मेरी दयनीयता देख कर उसे दुख हुआ था और सबसे अधिक दुख उसे मेरे टूटे हुए दाँत की खाली जगह देखकर हुआ था जिसकी वजह से मैं तनिक बदसूरत लग रही थी।. |
420 |
वह प्रतीक्षा कर रहा था और मैंने उसे बताया कि एक अच्छा दाँत दस-पन्द्रह हजार तक का लगेगा। प्रश्न के दूसरे हिस्से को मैंने मैकडॉनोल्ड के शोर में धकेल दिया पर शोर में भी उसका प्रश्न हवा में लटका मुझे ताक रहा था। वह मुझे यह रकम देने के लिए तैयार हो गया लेकिन मैंने मना कर दिया।. |
421 |
पहले भूमिका बनती है, फिर उस पर विचार होता है और अन्त में उस पर निर्णय लेकर काम किया जाता है। वो सन् दो हजार की बात थी। मेरी शादी से कुछ ही दिन पहले। भूमिका बन चुकी थी, विचार हो चुका था, निर्णय भी लिया गया किन्तु उस काम को बिल्कुल गलत समय किया गया जबकि उस समय उसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी।. |
422 |
खुला लेकिन नई समस्या। भीतर अँधेरा था। मैंने टटोलकर बोर्ड खोजा तो लाइट ही न जले। मैं घबराकर बाहर आ गई। कॉरीडोर में होटल का स्टाफ मिल गया। उसे बताया। वह मुस्कराया। पता नहीं उसकी मुस्कराहट कैसी थी क्योंकि घबराहट और शर्म के कारण मैं उसे नहीं देख रही थी। उसने दरवाजे के पास बने एक खाँचे में कार्ड डाला।. |
423 |
मेरे प्यार का पहला और आखिरी उपहार। मैंने उस बैग को आज तक सहेज कर रखा हुआ है। बहुत विशेष अवसरों पर मैं उसका इस्तेमाल करती हूँ। जैसे आज यह मेरे साथ है। मैंने राहुल को इस बैग को देने वाले के बारे में कभी नहीं बताया। अगर बता देती तो वह कब का उसे जला चुका होता या फेंक चुका होता।. |
424 |
कितनी शान्ति मिलती है जब आप चोरी छिपे कोई काम कर रहे हों और आपके मोबाइल पर उस व्यक्ति की कोई कॉल न हो जिसकी आप ऐसे समय सबसे अधिक अपेक्षा कर रहे हों। ये प्रतीक्षा भी कितनी मुश्किल होती है न, खासतौर पर जब आपके पास समय की बहुत कमी हो और प्रतीक्षा करवाने वाले से मिलना भी बहुत जरूरी हो।. |
425 |
मुझे भूख लगने लगी थी। यहाँ आने के चक्कर में, जल्दी जल्दी घर के काम निपटाने के बाद सिर्फ चाय पीकर आई थी। टेबल पर फलों की एक प्लेट रखी थी जिसमें एक सेब, दो केले और दो आलूबुखारे थे। मैं तीनों चीज एक एक खा गई। अमीरी लाइफ भी क्या लाइफ है! मुझे हल्का सा दुख हुआ कि मैं अनिरुद्ध की पत्नी नहीं हूँ।. |
426 |
हालाँकि मेरी सगाई होने से पहले मैं उसकी पत्नी बनने के बारे में ही सोचती रहती थी। अनिरुद्ध के पास मोटरसाइकिल थी। उसकी बाइक पर उसके पीछे बैठने की न जाने कितनी बार मैंने कल्पना की थी, कितनी बार कल्पनाओं में उसके पीछे बैठी, कभी एक प्रेमिका के रूप में तो कभी पत्नी के रूप में।. |
427 |
उसके तुरन्त बाद मेरे चाचा और ताऊ ने हमारा मकान बिकवा दिया ताकि तीन हिस्से हो सकें। भाई को जो हिस्सा मिला उससे वह मेरी शादी का कर्जा ही चुका पाया फिर वह भी छोटे भाई के साथ दिल्ली आकर बस गया। राहुल ने कभी मेरे भाइयों को पसन्द नहीं किया इसलिए वे मेरे पास बहुत कम ही आते हैं।. |
428 |
आज मैं यहाँ अपने रूटीन भरे जीवन में हल्के से बदलाव की चाह में हूँ। एक ऐसे सुख के लिए हूँ जो मेरे लिए बना ही नहीं था, पर इच्छा तो होती है न। जैसे आज की इच्छा। अगर मैं न भी कहूँ तो भी ये सच था कि मैं यहाँ अपने को समर्पित करने आई हूँ। अपने मरे हुए प्यार को सिर्फ आज के लिए हासिल करने आई हूँ।. |
429 |
विवाह के बाद बहुत जल्दी उसमें बदलाव आ गया बल्कि अपने असली रूप में आ गया। जब हमारा मकान बिका था तो उसकी नजर भाई के हिस्से की रकम पर थी जिसके लिए वह कहता था कि इसमें मेरा भी हिस्सा है और वो मुझे हर हाल में लेना चाहिए लेकिन मुझे पता था कि वो पैसा मेरे विवाह के कर्ज में ही जायेगा।. |
430 |
और उसने फिर अपनी पलकों को छुआ। उसने पलकें झपकाईं। उसे बहुत खिंचाव का अनुभव हो रहा था। वह चाहकर भी पूरी तरह आँख नहीं खोल पा रही थी मानो किसी ने जबरदस्ती उसकी पलकें पकड़ लीं हों। उसे लगा उसे बाथरूम में जाकर 'वॉश' कर लेना चाहिए। पर वह नहीं चाह रही थी कि दिन इतनी जल्दी शुरू हो जाय।. |
431 |
उसने जीभ अपने गालों पर फिराई। उसे महसूस हो रहा था कि उसने मुँह से दुर्गन्ध आ रही है। उसे लगा कि उसे ब्रश कर ही लेना चाहिए। वह झटके से उठकर बिस्तर पर बैठ गई और अपने पैर नीचे लटका दिए। ठंडी-ठंडी जमीम का स्पर्श पा उसके सारे शरीर में झुनझुनी-सी पैदा हो गई। पर उसको वह ताजा ठंडा-ठंडा स्पर्श भला लग रहा था।. |
432 |
रसोईघर से बरतनों को रखने की आवाज़ आ रही थी। माँ जरूर गुस्सा होंगी। माँ सारी रात-भर कैसे सो पाई होंगी उसे समझ नहीं आ रहा था। वह रात को पानी पीने उठी थी तो साथ वाले कमरे से पिता की खाँसी की आवाज़ आ रहा थी और बीच-बीच में पता नहीं माँ क्या बोल रही थीं जो वह नहीं सुन पाई थी और न सुनने की कोशिश ही की थी।. |
433 |
फिर उसे भाई का खयाल हो आया था और इससे पहले कि वह भाई के निश्चय की बात याद करती उसने आँखें बन्द कर ली थीं। वह केवल सो जाना चाहती थी वह भूल जाना चाहती थी कि भाई कल रात के प्लेन से कनाडा जा रहे हैं और उन्होंने माँ से स्पष्ट कह दिया है कि वे आर्थिक तौर पर अब कुछ भी सहायता नहीं कर पाएँगे।. |
434 |
अब साथ वाले कमरे से खाँसी की आवाज तेज हो गई थी। वह बिस्तर पर से उठी और बाथरूम में घुस गई। आँखों पर उसने ढेर सारी ठंडे पानी की छीटें मारीं। उसे लग रहा था कि अब आँखों का खिंचाव कुछ कम हो गया है। बाहर बरामदे में भाई की जोर-जोर से ब्रश करने की आवाज़ आ रही थी। 'यह आवाज कल नहीं आएगी।. |
435 |
माँ किसी गहरे सोच में थीं। उसे लगा कि कल रात से माँ अब अधिक बुढ्ढी लगने लगी हैं। उसने ध्यान से देखा, उसे लगा ठोड़ी के पास माँ की झुर्रियाँ बढ़ गई हैं। माँ का पल्ला कन्धे पर गिर गया था और उनके अध-खिचड़ी बाल इस तरह से बिखर आए थे कि वह अपनी उम्र से करीब दस-पन्द्रह वर्ष बड़ी लग रही थीं।. |
436 |
क्या अच्छा होता यदि यह स्टोव फट पड़ता। खत्म हो जाय यह झंझट, यह उदासी, आतंक और अनिश्चय की स्थिति। उसे ध्यान आया कि यदि स्टोव फट पड़ता तो वही नहीं माँ भी आग की लपेट में आ जातीं। "अच्छा ही होता।" उससे माँ का दुख देखा नहीं जाता। उसने स्टोव पर पानी चढ़ा दिया था। वह अब प्याले लगा रही थी।. |
437 |
मनीप्लांट की वह बेल उसकी घड़ी का काम देती थी। बरामदे में बैठकर पढ़ने से उसे अन्दाजा हो गया था कि जब धूप ऊपर वाले हिस्से पर पड़ती है तब दस बजता है और जब बीच में पड़ती है तब एक और जब नीचे होती है तब तीन या चार का समय होता है। उसे लग रहा था कि धूप बहुत धीरे-धीरे खिसक रही हैं।. |
438 |
उसका मन कर रहा था कि किसी तरह से सूरज के गोले को पश्चिम की ओर घुमा दे ताकि यह दिन जल्दी खत्म हो। वह माँ को नार्मल देखना चाहती थी और खुद नार्मल हो जाना चाहती थी। 'भाई के जाने के बाद क्या होगा' वाली स्थिति जितनी जल्दी आ जाए उतना ही अच्छा है। कम-से-कम इस अनिश्चय की स्थिति से तो छुटकारा मिलेगा।. |
439 |
छि कितने गन्दे हो रहे हैं। और वह पानी लेने चली गई। उसने ढेर सारा पानी गमले में डाल दिया। वह अब ऊपर के पत्तों को धो रही थी। वह पत्तों पर इस तेजी से पानी डाल रही थी माने पत्तों को धो नहीं रही हो बल्कि उस धूप को नीचे खिसकाने की कोशिश कर रही हो जो ऊपर वाले पत्तों पर नाच रही थी।. |
440 |
पिता की खाँसी बढ़ गई थी शायद उत्तेजना के कारण। भाभी और बेटू पहले से ही टैक्सी में बैठ चुके थे। भाई ने अपने हाथ का ब्रीफकेस रखकर माँ के पैर छुए। भाई का इस तरह से नीचे झुककर माँ के पैर छूना उसे बड़ा अटपटा और अजीब लग रहा था, क्योंकि उसने आज तक भाई को माँ के पैर छूते नहीं देखा था।. |
441 |
उसका मन कर रहा था कि जोर से बोले, "किसी भी चीज की जरूरत नहीं होगी।" पर इससे पहले कि वह अपने होंठ खोलती, भाई उसके गाल थपथपा रहे थे "नीतू, चिठ्ठी लिखेगी न।" उसने भाई की तरफ देखा तो उसे लगा कि भाई ने वह बात मुँह से नहीं दिल से कही हैं। उसका धैर्य जवाब दे रहा था। उसे लगा यह घड़ी इतनी जल्दी कैसे आ गई।. |
442 |
ड्राइवर ने ऐक्सिलरेटर दबा दिया था और एक झटके से टैक्सी ने स्पीड पकड़ ली थी। भाई सड़क के नुक्कड़ तक हाथ हिलाते रहे थे। टैक्सी के ओझल हो जाने के बाद न जाने क्यों उसे लगा कि वह बहुत हल्की हो आई है। उसने पीछे मुड़कर देखा माँ रो रही थीं और उनके आँसू थम नहीं रहे थे। वह माँ को सहारा देकर अन्दर ले गई।. |
443 |
एक रात में माँ कितनी बदल गई हैं। रात खाना भी नहीं खाया। उसे तो बड़ी तेज भूख लग रही थी, पर घर में किसी ने नहीं खाया। वह पलंग पर अधलेटी ऊपर पंखे को एकटक देख रही थी। घूँ घूँ घूँ प़ंखा पूरी रफ्तार से चल रहा था, पर फिर भी उसका पसीना नहीं सूख रहा था। 'घूँ घूँ घूँ भाई अब भी प्लेन में ही होंगे।. |
444 |
अब घर में मैं, मुनीर और सलोनी तीन ही प्राणी रह गए। सलोनी प्रेगनेंट थी। मैं मन-ही-मन सोचता रहता कि अब सुरभि के बिना बचे दिन मुनीर के बच्चों के साथ खेलते-खाते कट जाएँगे। लेकिन उसके बच्चों के साथ खेलना-खाना मेरे भाग्य में नहीं था। सलोनी बेटी रिया को जन्म देने के बाद एकदम ही बदल गई।. |
445 |
यहाँ इस कस्बे में अच्छे मकान हैं ही नहीं। हमें देखो, बड़े ही रद्दी किस्म के मकानों में रहना पड़ रहा है। दो-पाँच अच्छे मकान हैं भी, तो उन्हें अफसरों ने घेर रखा है। हाँ, तहसील के पास सोनी जी का बँगला है। चाहो तो उसमें कोशिश कर लो। सुना है बँगले का मालिक अपना मकान किसी को भी किराए पर नहीं देता है।. |
446 |
समय गुजरता गया और इसी के साथ मकान मालिक व किराएदार का रिश्ता सिमटता गया और उसका स्थान एक माननीय रिश्ता लेता गया। एक ऐसा रिश्ता जिसमें आर्थिक दृष्टिकोण गौण और मानवीय दृष्टिकोण प्रबल हो जाता है। वैसे, इस रिश्ते को बनाने में मजूमदार दम्पति की भी खासी भूमिका थी क्योंकि सुदृढ़ रिश्ते एकपक्षीय नहीं होते।. |
447 |
बँगले के गेट पर उनकी श्रीमतीजी, दोनों बच्चे, माँ-साब और बुआ-साब खड़े थे। पड़ोस के मेनारिया साहब, बैंक मैनेजर श्रीमाली जी तथा शर्मा दम्पति भी उनमें शामिल थे। वातावरण भावपूर्ण था। विदाई के समय प्राय ऐसा हो ही जाता है। बच्चों को छोड़ सबकी आँखें गीली थीं। मजूमदार ज़बरदस्ती अपने आँसुओं को रोके हुए थे।. |
448 |
वह पाटी की मेम्बर नहीं थीं - ना ही किसी कांग्रेसी से कोई मुलाकात थी उनकी, लेकिन कांग्रेस के खिलाफ वो एक लफ्ज नहीं सुन सकती थीं। इंदिरा जी की हत्या की खबर टेलीविजन पर आई तो नाना ने उन्हें पंजाबी में अनुवाद करके बताया। नानी को यकीन ही नहीं हुआ। और जब यकीन हुआ तो उन्हें बेहद दुख हुआ।. |
449 |
लाहौर वाले मकान के बदले में। नाना को एक प्राईवेट स्कूल में नौकरी मिली जो उन्होंने रिटायरमेंट तक की। इसी स्कूल से मिलने वाली तनखा में नानी ने एककमाल कर दिखाया। चार बच्चों के परिवार को पालने-पोसने और स्कूलों में अच्छी शिक्षा के खर्चों के साथ-साथ सात कमरों वाल एक हवेलीनुमा मकान भी बना डाला।. |
450 |
इस घर में तीन रसोईघर थे। एक असली रसोईघर जिसमें खूब मेहनत से माँजे गये काँसे और पीतल के चमचमाते बर्तन लाइन से अलमारियों में लगे रहते थे। दूसरा रसोईघर एक बरामदे में था जहाँ रोज खाना पकता था और तीसरी रसोई थी खुले आँगन में जहाँ गर्मियों में शाम का खाना तंदूर में पका करता था।. |
451 |
नानी का शरीर भारी होने का एक ठोस कारण था। नानी थी ठेठ पंजाबन। नानी ने पंजाबी के अलावा कोई भाषा न समझी, न बोली, सलवार-कमीज के अलावा कुछ पहना नहीं और देसी घी के अलावा कुछ खाया नहीं। घी-दूध से उनका अगाध प्रेम था। खाने की हर चीज में भरपूर देसी घी न हो तो उनका काम ही नहीं चलता था।. |
452 |
चाय के बारे में वह मानती थीं कि चाय गरमी करती है इसलिए चाय को एक तो वो ठंडा करके पीती थीं और उनमें एक-दो चम्मच खालिस घी जरूर डाल लेती थीं। उनका शैंपू लस्सी थी और लस्सी से सिर की मालिश करती थीं और हम अपने बचपन में उनके शरीर से आने वाली घी की गंध से उन्हें पहचानते आ रहे थे।. |
453 |
पुलिस में रिपोटा-रिपाटी भी की, लेकिन सबकी सहानुभूति अंधे प्रोफेसर और उससे ज्यादा उसकी खूबसूरत बीवी के साथ थी, कोई कार्यवाही नहीं हुई। नानी हिम्मतवाली जरूर थीं लेकिन उसमें आज के जमाने वाला काइयाँपन नहीं था। थक हार कर नानी ने अपनी कोठी औने-पौने दामों पर बेच दी और भोपाल का रुख किया।. |
454 |
जाली लगने के बाद नानी को फितूर हुआ - पूरे फर्श पर टाइलें लगवाने का, फिर गुलाबी डिस्टेंपर कराने का। सब काम नानी की मर्जी से पूरे होते रहे। उनसे बहस करने की किसी की हिम्मत नहीं थी। पूरा घर उनका रौब खाता था और उनकी बुलंद आवाज से डरता था। आवाज की ये बुलंदगी आखिर तक कायम रही।. |
455 |
यह नानी का आसन था। मोहल्ले की औरतें अक्सर दोपहर को इक्ट्ठी होकर आती थीं और नानी के चरण छूकर उनके इर्द-गिर्द फर्श पर बैठ जाती थीं। फिर शुरू होता था नानी के भजनों का दौर। नानी अपने भजन खुद ही बनाती थीं और पुराने भजन भूलकर रोज नये भजन रचती थीं। सब भजन भगवान कृष्ण की महिमा में होते थे।. |
456 |
दरअसल उन्हें आदत थी घर को अपने राजपाट जैसे चलाने की। किसी और के घर में तो उनका राज चलता नहीं। यही सोचकर वह कभी हमारे मामा के घर जाकर नहीं रहीं। बावजूद इसके कि मामा उन्हें बार-बार बुलाते रहे। एक बार गयी थीं तो हफ्ते भर में लौट भी आयीं थी। मामा के घर जाकर न रहने की शायद एक वजह और भी थी।. |
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नानी का रंग गोरा था और नाक बहुत लंबी। उन्हें अपनी लंबी तोतापरी नाक का बहुत गुमान था। छोटी नाक वाले लोग उन्हें पसंद नहीं आते थे। खानदान में जितने बच्चे पैदा होते उन सबको जब नानी से मिलवाने लाया जाता तो नानी सबसे पहले नाक टटोल कर देखती थीं और नाक लंबी पाने पर बहुत खुश होती थीं।. |
458 |
बीच-बीच में कई बार मर कर जी उठीं नानी। यहाँ से वहाँ टेलीफोन खनखनाये जाते। सब लोग इकट्ठे हो जाते और नानी वापस जी जातीं। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। गहरी बेहोशी में जब नानी के मुँह में पानी डाला गया तो पानी भीतर गया नहीं। नब्ज लगभग गायब थी। डॉक्टर को सबेरे से आने का बोल रखा था, उन्हें दुबारा खबर की।. |
459 |
इसी सोच के रहते उसने अपना इरादा मतबूत रखा और बेहिचक अगले ब्लाक में घुस गया। पच्चीस-तीस घरों के चक्कर लगाने पर जब कुछ न मिला तो लगा कि वह गलत जगह आ गया है। सभी कुछ गलत! गलत! सत्रह ब्लाक के आगे चौदह ब्लाक नहीं होना चाहिए। चाहिए तो यह कि सत्रह के आगे अठारह होता और फिर क्रमशः उन्नीस बीस...।. |
460 |
अपने देश की संतान कहीं जाकर पैदा हो, उसका देसीपन कहीं नहीं जाता। माँ-बाप ने उसका नाम अमरीक सिंह रख दिया। नाम जो हो, पर अब वह पहले वाला अमरीक नहीं रह गया। तब बिना माँगे ही कुछ दे देता था, अब दुकान के आगे टिकने नहीं देता। रोज जाने पर गालियाँ फेंकना शुरू कर देगा, गालियाँ भी ऐसी कि ढूँढने से न मिलें।. |
461 |
वह परंपराओं को जीते हुए अपना विवाह संपन्न करना चाहता था। उसके पिता शर्माजी को अहसास था कि उनकी भूमिका आशीर्वाद देने वाले खिलौने जैसी रह गई है। उनके सामने वक्त की करवटें थीं। समय संबंध तय करने वाले नाई-नायन के हाथ से निकल अखबारी विज्ञापनों की गलियों में घूमकर इंटरनेट की परिधि में पहुँच चुका था।. |
462 |
हम सब पिता को एक अंतर्मुखी व्यक्ति के रूप में जानते थे। दादाजी की मौत के बाद खेती-बाड़ी का दायित्व उनके कंधों पर आ गया था लेकिन शायद वे अपने वर्तमान जीवन से खुश नहीं थे। मुझे अक्सर लगता कि शायद वे कुछ और ही करना चाहते थे। शायद उनके जीवन का लक्ष्य कुछ और ही था। माँ पिता से ज्यादा दुनियादार महिला थीं।. |
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तब मैं चौदह साल का था और गाँव की पाठशाला में आठवीं कक्षा में पढ़ता था। एक दिन पिता ने घर में घोषणा की कि वे एक 'हॉट एयर बैलून' बनाएँगे और उसमें बैठ कर ऊपर आकाश में जाएँगे। घर-परिवार और गाँव में जब लोगों ने यह सुना तो वे तरह-तरह की बातें करने लगे। किसी ने कहा कि उनका दिमाग खिसक गया है।. |
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बेटा, माँ का खयाल रखना। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। मैंने अपने तकिये के नीचे तुम्हारे लिये एक चिट्ठी छोड़ी है। उसे पढ़ कर तुम सब समझ जाओगे। प्यार से मेरा माथा चूमते हुए वे बोले। उनका आशीष पाने के बाद भी मेरा गला रुँध गया था। मैं बहुत मुश्किल से अपने आँसुओं को रोक पा रहा था।. |
465 |
मैं दौड़ कर पिता के कमरे में गया और उनके तकिये के नीचे से मैंने अपने नाम लिखा उनका पत्र उठा लिया। पिता ने उस पत्र में लिखा था - बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है, लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं। लेकिन अपने सपने को साकार करना आदमी के अपने हाथ में होता है।. |
466 |
उस रात मुझे नींद नहीं आई। सुबह होते ही मैं गाँव के बाहर मैदान की ओर भागा। वह अब भी वहीं था, पिता का गुब्बारा। दिखने और ओझल होने की सीमा-रेखा पर टँगा हुआ। घोर आश्चर्य। दरअसल पिता कहीं नहीं गए थे। वे वहीं मौजूद थे, अपने गुब्बारे के साथ जुड़ी बड़ी-सी टोकरी में बैठे हुए। बहुत ऊपर से हमें देखते हुए।. |
467 |
दिन बीतने लगे। पिता का गुब्बारा वहीं मौजूद रहा। अधर में टँगा हुआ। दसवें दिन मामा और गाँव के बड़े-बुज़ुर्गों ने शहर से एक हेलिकॉप्टर का बंदोबस्त किया। माँ, मामा, मैं और गाँव के सरपंच उसमें सवार हो कर गुब्बारे की दिशा में उड़ चले। हम वहाँ पहुँच कर पिता को समझा-बुझा कर नीचे ले आना चाहते थे।. |
468 |
दोपहर तक धुँध छाई रहती। जब धुँध छँटती तो पिता का गुब्बारा दूर आकाश में लटका हुआ नजर आता। तब मुझे उनकी कमी बहुत शिद्दत से खलती। मुझे लोक-कथाएँ सुनाने वाला अब कोई नहीं था। पशु-पक्षियों, मछलियों और पेड़-पौधों की बारीकियाँ बताने वाला अब कोई नहीं था। गाँव में लोग उनके बारे में तरह-तरह की बातें करते।. |
469 |
उन पर्चों में लिखे अक्षरों को मैं पहचान गया। यह पिता के हाथ की लिखावट थी। उन पर्चों को ले कर हम सब सरपंच जी के पास गए। उन पर्चों में पिता ने चेतावनी दी थी कि गाँव के बगल से गुजरती तीस्ता नदी में तीसरे दिन बाढ़ आने वाली थी। पिता ने सब को गाँव से दूर किसी ऊँची जगह पर चले जाने की सलाह दी थी।. |
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जब भी गाँव को किसी प्राकृतिक आपदा से खतरा होता, पिता की लिखावट वाला पर्चा मैदान में पहले से गिरा मिल जाता। इस पूर्व-चेतावनी से हम सब आपदाओं के प्रकोप से बच जाते। हमारा गाँव समुद्र के किनारे नदी के मुहाने के पास था। कई बार हम समुद्री चक्रवात के कोप से पिता की भविष्यवाणी की वजह से बच पाए।. |
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माँ मेरे साथ ही शहर में रहने चली आई। किंतु हम सब साल में एक बार गाँव जरूर जाते। पिता का गुब्बारा तब भी हमें दिखने और ओझल होने की सीमा-रेखा पर वैसे ही स्थित नजर आता। गाँव में कई लोग यह दावा करते कि उन्होंने रात के अँधेरे में पिता जैसी आकृति वाले किसी व्यक्ति को गाँव की गलियों में भटकते हुए देखा है।. |
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सपने में पिता को इस स्थिति में देख कर मैं भीतर तक विचलित हो गया। मुझे लगा - अब निर्णय लेने का समय आ गया था। वे मेरे पिता थे। मैं उनके लिये हमेशा से कुछ करना चाहता था। मैं उन्हें सदा के लिये इस तरह अधर में लटकते हुए नहीं देख सकता था। मैं उन्हें इस नियति से छुटकारा दिलाना चाहता था।. |
473 |
पिता को भेजे पत्र में मैंने यह भी लिखा था - आपका पोता बड़ा हो गया है। वह डॉक्टर नहीं बनना चाहता। वह इंजीनियर नहीं बनना चाहता। वह वक़ील नहीं बनना चाहता। वह एम. बी. ए. करके किसी बहु-राष्ट्रीय कम्पनी में काम करके लाखों रुपए का वेतन नहीं लेना चाहता। वह इन चारों में से किसी दिशा में नहीं जाना चाहता।. |
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प्रभु अपने दूतों से दूर दूर से कभी सुन्दरता को मँगवाते, कभी कोमलता को और उस बच्ची के शरीर में भर देते। कभी अपने किसी खास बन्दे से कहते कि कोयल की आवाज में जरा सा शहद घोल कर दो। कभी हिरनी से चितवन माँगते, कभी जलते हुए दीपकों से रौशनी लेते और कभी चंद्रमा से उसकी चाँदनी ही माँग लेते।. |
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यहीं पर वो रोज सीखती थी सहज प्रवृति के गुण! प्रभु उसे बताते थे कि जब वो पैदा होगी तो माँ उसे अपने सीने से लगा लेगी और किस तरह अपने मुख से उसे अमृतपान करना है, वो अमृत जो उसे इतना मजबूत बना देगा कि आने वाली पूरी जिन्दगी में वो संकटों से लड़ लेगी। प्रभु बताते थे कि पिता का रूप कैसा होता है।. |
476 |
आज का दिन उस बच्ची के लिए बहुत खास था, आज उसे पता चला कि उसकी फोटो ली गयी है! प्रभु ने उसे बताया, आज बाहरी दुनिया ने अपनी बनायी हुई मशीनो में उसे निहारा है। उसके माता पिता ने उसकी झलक देखी है कि वो सही है या नहीं। सेहतमंद है कि नहीं। उसे मानव सभ्यता और विज्ञान के विकास पर बहुत गर्व हुआ।. |
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यही छोटा सा पल आगे चल कर बदल जाता है उस व्याकुलता में जो अपने प्रेमी के आने का इन्तजार करती रहती है और यही पल बनता है वो अमर क्षण जब एक माँ की छाती गीली हो जाती है पता चलते ही कि उसका बच्चा भूखा है। दया, प्रेम,वात्सल्य सारे ईश्वरीय गुण प्रभु ने नारी जाति के लिए रख छोड़े हैं।. |
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एक अजीब सी चिंता ने प्रभु को घेर लिया। प्रभु इस चिंता के मारे सूखने लगे लेकिन कोई समाधान न सूझा! प्रभु ने कुछ नियम अपने लिए ऐसे बना लिए है कि बाद में खुद ही उनमें फँस कर रह जाते हैं। ऐसा ही एक नियम है मनुष्य को कर्म करने की छूट देने का, उसे ज्ञान का फल चखने की छूट देने का।. |
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प्रभु साधारणतया मनुष्य के कर्मों में दखल नहीं देते, हाँ, लेकिन फल पर अधिकार जरूर रखते हैं। पर सिर्फ इतने से ही सारे अपराध नहीं रोके जा सकते। उस दिन के बाद प्रभु ने कभी उसके माता पिता की कोई बात न की। वो बच्ची को बहादुर बनाने का प्रयत्न करने लगे। वो उसे लक्ष्मी बाई और कल्पना चावला के किस्से सुनाते।. |
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प्रभु ने उसे बताया कि अगर उसे अपने शरीर में कोई तकलीफ हो तो वो तुरंत उन्हें बता दे। अब तक सपनो में जीने वाली बच्ची बात का मतलब समझ नहीं पाई। प्रभु हिम्मत नहीं कर सके कि अब तक उसके पिता का गुणगान करने वाले वो खुद कैसे उस बच्ची को बताये कि उसके प्यारे पिता ने क्या फैसला लिया है।. |
481 |
कब तक टालते! प्रभु ने कहा कि उसके पिता अच्छे नहीं हैं और उसे मारना चाहते हैं। उस दिन उस बच्ची का चेहरा तमतमा गया और उसकी आँखे लाल हो गईं। वो अपने पिता की प्रसंशा करती है तो प्रभु से सुना नहीं गया, इतनी जलन! धिक्कार है! उसने प्रभु को धक्के मारकर अपने घर से बाहर निकल दिया।. |
482 |
अरे दुनिया के सबसे महान कवियों तुम सब मिल कर भी अपनी विद्या और भावों को घोल कर कोई एक ही कविता पूरी एकजुटता से बनाओ तो भी काव्य की तराजू में वो उन चार मोतियों से हलकी पड़ेगी! कठोर से कठोर हृदय भी आज उस बच्ची को अपने प्रभु से नजरें मिलाते देख लेता तो इतना रोता कि थार मरुस्थल पर आज लहलहाते खेत होते।. |
483 |
ये वो झटका था कि दुनिया के बड़े से बड़े दिलेर को लग जाये तो क्षण के सौंवें हिस्से में ही हृदयगति रुकने से परलोक वासी हो जाये! आज पहली बार बच्ची ने जाना कि क्षितिज को एकटक देखना क्या होता है। वही तो एक ऐसा किनारा है जहाँ हमें कभी कभी सदियों के अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिलते हैं।. |
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पूरी की पूरी सफ़ेद, रंग के नाम पर न छापा, न किनारा, न पल्लू। साड़ी थी एकदम कोरी धवल, पर अहसास, उजाले का नहीं, बेरंग होने का जगाती थी। मैली-कुचैली या फिड्डी-धूसर नहीं थी। मोटी-झोटी भी नहीं, महीन बेहतरीन बुनी-कती थी जैसी मध्य वर्ग की उम्रदराज़ शहरी औरतें आम तौर पर पहनती हैं।. |
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हाँ, थी मुसी-तुसी। जैसे पहनी नहीं, बदन पर लपेटी भर हो। बेख़याली में आदतन खुँसी पटलियाँ, कन्धे पर फिंका पल्लू और साड़ी के साथ ख़ुद को भूल चुकी औरत। बदन पर कोई ज़ेवर न था, न चेहरे पर तनिक-सा प्रसाधन, माथे पर बिन्दी तक नहीं। वीराने में बने एक मझोले अहाते के भीतर बैठी थी वह।. |
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पर अचरज, इंसानों को बसाने का जज्बा भले न रहा हो, फूलते-फलते पेड़ लगाने का इरादा जरूर था। इरादा कि उम्मीद! जिद या दीवानगी! जो था, कारगर न हुआ। धरती में खार की पहुँच इतनी गहरी थी और निकास के अभाव में, बरसात के ठहरे पानी की मियाद इतनी लम्बी कि पेड़ों का उगना, मुश्किल ही नहीं, करीब-करीब नामुमकिन था।. |
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कुछ झाऊँ और कीकर जरूर उग आते थे जब-तब। पर जब और तब के बीच का फासला इतना कम होता कि पता न चलता, कब थे कब नहीं। उगते, हरसाते, ललचाते और मुक्ति पा जाते। जब पहले-पहल, पहला झाऊँ उगा तो बड़ी पुख्तगी के साथ इरादा, उम्मीद बना कि बस अब वह भरे भले नहीं पर जंगली पेड़ वहाँ हरे जरूर होंगे।. |
488 |
और उसके एकाध साल बाद, जमीन ममतामयी हुई तो फलदार पेड़ भी उग सकेंगे। झाऊँ के बाद कीकर उगे तो उम्मीद भी उमगती चली गई, अंकुर से पौध बनती। सरदी पड़ने पर कीकर पीले पड़ कर सूख गये, झाऊँ भी गिनती के दस-बीस बचे। तब भी उम्मीद ने दम न तोड़ा। लगा इस बरस पाला ज्यादा पड़ गया, अगली बार सब ठीक हो जाएगा।. |
489 |
दूसरी औरत छाजन के बाहर, चहारदीवारी के भीतर बैठी थी, हैंड पम्प के पास। फिसड्डी, पैबन्द लगी कुर्ती और ढीली सलवार पहने थी। अर्सा पहले जब नया जोड़ा बना था तो रंग ठीक क्या रहा होगा, कहा नहीं जा सकता था। और जो हो, सफेद वह कभी नहीं था। मैला-कुचैला या बेतरतीब फिंका हुआ अब भी नहीं।. |
490 |
दुरुस्त न सही चुस्त जरूर था, देह पर सुशोभित। सीधी तनी थी उसकी मेहनतकश देह, उतनी ही जितनी पहली की दुखी-झुकी-लुकी। ज़ाहिर था वह निम्न से निम्नतर वर्ग की औरत थी। गाँव की वह औरत, जो दूसरों के खेतों पर फी रोज मजदूरी करके एक दिन की रोज़ी-रोटी का जुगाड़ करती है पर खुदकाश्त जमीन न होने पर भी रहती किसान है।. |
491 |
उसने आस लगाई तो बस कमतर श्रेणी का धान उगाने वाले खेतिहरों की फसल की बुवाई-कटाई की, जो कमोबेश पूरी होती रही, दो-एक सालों के फासले पर। जब सूखा पड़ता और फसल सिरे से गायब हो जाती तो सरकार राहत के लिए जहाँ सड़क-पुल बनाती, वहीं मजूरी करने चली जाती। जिस दिन मजूरी नहीं, उस दिन कमाई नहीं, रोटी नहीं।. |
492 |
सोने और जागने के बीच सिर्फ काम का फासला जानती थी, इसलिए चन्द मिनट बेकार क्या बैठी, आप से आप आँखें मुँद गईं। इतनी गहरी सोई कि ओढ़नी बदन से हट, सिर पर टिकी रह गई। निस्पंद बैठे हुए भी उसकी देह जिंदगी की थिरकन का भास देती रही। साँस का आना-जाना, छाती का उठना-गिरना, मानो उसकी रूहानियत के परचम हों।. |
493 |
सबकुछ बरखा भरोसे जो था। सचमुच पिछले दो बरस बड़भागी बीते थे। पिछले बरस भी बरखा इतनी हो गई थी कि धान की फसल ठीक-ठाक हो और उसे कटाई का काम मिलता रहे। और इस बरस... इस बरस तो यूँ टूट कर बरसा था सावन कि बिला खेत-जमीन, हरिया लिया था जिया। तभी न कल दूनी मजदूरी का जुगाड़ हुआ और आज यहाँ बैठने आ पाई।. |
494 |
कहा होगा शिवजी से कि प्राणप्यारे खिला दो, छोरी खातिर उसकी नाईं कमलनी। बाबा शंकर मना करते तो कैसे, सूरत छोरी की ज्यों पारवती की परछाईं। दिप-दिप मुख पर देवी जोगी मुस्कान लिए खत्म हुई थी, पल भर को जो छोरे का हाथ अपने हाथ से छूटने दिया हो। जैसे ही गाड़ी ट्रेक्टर से टकराई, सोने से छोरा-छोरी मिट्टी हो गए।. |
495 |
गाहे बगाहे नजर फिसल ही जाती, यहाँ-वहाँ। उसकी दूसरी कोशिश भी नाकाम रहती। बोझिल अधखुली आँखों को पूरी तरह मूँद, यह उम्मीद करने की, कि इस वीराने में यादों के भँवर में डूब, नींद आ जाएगी। एकाध दफा यह तो हुआ कि भँवर से दो-एक खुशनुमा लम्हें जेहन में उभरे और बरबस होंठों पर हल्की मुस्कराहट तिर गई।. |
496 |
उसने देखा- जमीन को घेरे जो दो फुटी दीवार खड़ी थी, उसके दूसरी तरफ बाहर पानी ही पानी था। इतना पानी! हाँ होता है, देख चुकी है न दो बार। बरसात होने पर, उम्मीद का यह वीरान बगीचा, पानी से भरा उथला नाला बन, खुद अपने पेड़-पौधों को निगल जाता है। पर यह मौत का साया फेंकता पानी नहीं, कुछ और है।. |
497 |
लगा, रेत की मानिन्द हाथों से फिसली पूरी जिन्दगी बीत ली। याद आया, यहाँ साँप के एक जोड़े ने बसेरा किया था। केंचुल छोड़ एक दिन सरक लिए। फिर नहीं लौटे। मोर-मोरनी भी भटक आए थे एक बार, जब बरसात से पहले, कुछ पेड़ उम्मीद बन उगे थे। वे भी चले गए न लौटने के लिए। वही बार-बार लौट आती है यहाँ।. |
498 |
दूसरी बेखबर नहीं थी। आश्वस्त थी कि दिन ढलने में अभी वक्त था। साँझ उतरने पर, जब कमलनी पँखुड़ियाँ समेटना शुरू करेगी, तभी घर पलट पाएगी, सोच कर ही वीराने में पाँव रखा था। उसे पता था, छोरे की माँ छोरे की पुन्न तिथि पर साँझ घिरने पर ही वहाँ से पलटती थी। कमलनी कल फिर खिलेगी, सूरज उगने के साथ।. |
499 |
थिर मूरत में हरकत हुई तो पहली औरत मायाजाल से निकल ठोस जमीन पर आ गिरी। पर कमलनी! वे तो अब भी खिली थीं। कुछ सिमटी-सकुचाई जरूर थीं, नई दुल्हन की तरह। पर थीं सब की सब वहीं, मगन मन पानी के ऊपर तैरतीं। नहीं, मायावी नहीं था वह लोक जिसमें विचर, वह अभी-अभी लौटी थी। कमलनी थीं, वाकई थीं।. |
500 |
हैंड पम्प से पानी लेने आई होगी। इस खारे इलाके का पानी भी खारा था, कुओं का ही नहीं, गहरे खुदे नल कूप का भी। वह खुदवा कर देख चुकी थी। मीठा पानी सिर्फ सरकार की कृपा से मिलता था। उसकी जमीन पर था मीठे पानी का एक हैंड पम्प। उसी ने कह-सुन कर लगवाया था। सुबह सकारे गाँव की औरतें उससे पानी भरने आती थीं।. |
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